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हिंदी दोहों और चौपाइयों में सुन्दरकांड
SUNDAR KAND - HINDI DOHON AUR
CHOWPAAIYON MAE
ISBN : 978-93-94660-26-7
प्रबंध
कार्यालय :
516/4, बी.एल. साहा रोड, ग्राउंड क्रलोर
कोलकाता - 700038
मो. : 94324-19815
ई-मेल : enterprisesaa2019@gmail.com
लेखिका : शालिनी गर्ग
संस्करण : 2023
मूल्य : 50/-
शब्द
सज्जा : परमानंद झा, मो. : 95550-21641
मुद्रक : मिश्का इन्फोटेक, कोलकाता
समर्पण

पूजनीय
माताजी
स्व. श्रीमती
मिथलेश जी गोयल
को भावपूर्ण
समर्पित
—शालिनी
गर्ग
मन की बात
मिल जाती जब प्रभु कृपा, कठिन नहीं है काज।
सागर में देती लगा, रूई भी है आग।।
भगवान श्रीराम जी और श्री हनुमान जी के चरणों
में बारंबार वंदन। उनकी कृपा से ही मैं महान कवि तुलसीदास जी द्वारा रचित रामचरित मानस
के सुंदरकांड सोपान को जो अवधि भाषा में है, हिंदी की चौपाई, दोहों और छंद में रूपांतरित
कर पाई। तुलसीदास जी का जिस चौपाई में जो भाव है मैंने वैसा ही लिखने का प्रयास किया
है। ईश्वर के आशीर्वाद से ही मेरी कलम चलती गई। मेरी प्रथम पुस्तक ‘हिंदी दोहों और
चौपाइयों में सुन्दरकांड आज
आप सभी के स्नेहपूर्ण सहयोग के कारण प्रकाशित होने जा रही है, इसके लिये मैं सभी को
कोटिश: धन्यवाद देती हूँ।
मेरे स्वर्गीय दादा-दादी जी जिनके अध्यात्म
का अंश मुझे मिला और उनके आशीर्वाद से मैं कुछ लिख पा रही हूँ, उन्हें धन्यवाद करती
हूँ। मेरी स्वर्गीय माता जी श्रीमती मिथलेश गोयल और पिताजी श्री विरेंद्र गोयल की प्रेरणा
मुझे जीवन के हर क्षेत्र में मिली है, उन्हें मैं धन्यवाद करती हूँ। मेरे पति गिरिराज
किशोर गर्ग जिनका सहयोग मुझे लगातार मिलता रहा और आगे भी मिलता रहेगा, उन्हें मैं धन्यवाद
करती हूँ। सुरेश चौधरी ‘इंदु सर
जिनके सहयोग से ही पुस्तक को प्रकाशित करने में सफल हो सकी हूँ। मेरे सभी सहयोगी, कवि-कवयित्रियों
को जिन्होंने मुझमें आत्मविश्वास जगाया और लिखने के योग्य बनाया।
जय श्रीराम!
—शालिनी गर्ग
महत्वपूर्ण अनुष्ठान
गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस भारतीय
संस्कृति का मेरुदंड है और सुंदरकांड इस मानस का सर्वाधिक महत्वपूर्ण केंद्र है। हिंदी
की प्रतिष्ठित कवयित्री शालिनी गर्ग इस सुंदरकांड को हिंदी की चौपाइयों, दोहों और छंदों
में ढालने का जो महती कार्य कर रही हैं, वह निश्चित ही एक बहुत ही महत्वपूर्ण, सार्थक
और ऐतिहासिकता अनुष्ठान है। शालिनी जी अपने अभियान में पूर्णत: सफल हों, मेरी अनंत
सारस्वत कामनाएं और मंगल शुभेच्छाएं। तथास्तु!!
—पंडित सुरेश नीरव
अंतर्राष्ट्रीय चिंतक-कवि
भूमिका
शालिनी गर्गजी ने गोस्वामी तुलसीदास जी द्वारा
रचित सुन्दरकाण्ड के अवधी शब्द-मोतियों
को हिन्दी वर्ण-माला में पिरोने का उत्कृष्ट कार्य किया है। अवधी का हिन्दी में अर्थान्वय,
भक्तिभावों का काव्यान्वय और राग-अनुराग का समन्वय इस रचना की विशेषताएँ हैं। अनेक
साहित्यकारों द्वारा अपने विवेक और बुद्धि के अनुसार रामकथाएँ रचीं और अनूदित की गईं
है, उनमें शालिनी जी द्वारा रचित काव्य रूपांतरण भी अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखता
है।
गीता के काव्यानुवाद के बाद अब सुन्दरकाण्ड
का काव्यमय हिन्दी अनुवाद आपकी आध्यात्मिक साहित्य में निष्ठा का द्योतक है। आप भक्ति
साहित्य क्षेत्र में निश्चित रूप से सार्थक योगदान कर रही हैं।
आपकी कृतियाँ जनमानस तक पहुँचे, ऐसी कामना करता
हूँ।
—सी.ए. अजय गोयल
(तंज़ानिया)
सजीव चित्रण
शालिनी गर्ग जी की कृति सुंदरकाण्ड की व्याख्या अद्भुत
और उत्कृष्ट है । सुंदरकाण्ड में हनुमान जी का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट,
सीता से भेंट करके उन्हें श्रीराम की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और
लंका से वापसी, विभीषण का श्रीराम के लिए प्रस्थान एवं श्रीराम का समुद्र पार करने
का विचार के घटनाक्रम को शालिनी जी ने बहुत ही निपुणता से सरल और परिष्कृत हिंदी की
चौपाइयों, छंदों एवं दोहों में रूपांतरित किया है।
सार्थक एवं सजीव चौपाइयाँ पढ़कर एक
मानसिक सुख और आत्मबल मिलता है। यह कृति शालिनी जी की आध्यात्मिक एवं साहित्यिक साधना
को प्रतिबिंबित करती है। निस्संदेह, आज के युग में आध्यात्मिकता को साहित्य से जोडऩा
एक महायज्ञ है, जिसके लिये शालिनी जी को बहुत-बहुत साधुवाद। जब कोई ग्रंथ सरल और भावपूर्ण
हो जाए तो उस ग्रंथ की सार्थकता और मान्यता और बढ़ जाती है।
शालिनी गर्ग जी को हार्दिक शुभकामनाएँ उनकी
इस अद्भुत और उत्कृष्ट कृति हेतु।
अनुपम मिठास
टोरोंटो (कनाडा)
प्रस्तावना
सुंदरकाण्ड रामायण तथा श्रीरामचरित मानस का
एक भाग है। रामायण में सात कांड होते हैं-बालकांड, अयोध्या कांड, अरण्य कांड, किष्किंधा
कांड, सुंदरकांड, लंकाकांड और उत्तररकाण्ड।
रामायण पाठ में सुन्दरकाण्ड के पाठ का विशेष
महत्व माना जाता है। सुन्दरकांड में भगवान रामजी के प्रिय सेवक हनुमान जी की महिमा
एवं उनके द्वारा किये गये महान कार्यों का सुंदर वर्णन किया गया है। हनुमान जी ने लंका
जाकर सीता जी का पता लगाया था। लंका त्रिकुटाचल पर्वत पर बसी थी। त्रिकुटाचल पर्वत
यानी यहाँ तीन पर्वत थे। पहला सुबैल पर्वत-जहां के मैदान में युद्ध हुआ था, दूसरा नीलपर्वत-जहां
रावण व राक्षसों के महल थे और तीसरा पर्वत, सुंदर पर्वत-जहाँ अशोक वाटिका थी। इसी अशोक
वाटिका में हनुमानजी और सीताजी की भेंट हुई थी। इस काण्ड की यही सबसे प्रमुख घटना थी,
इसलिए इसका नाम सुंदरकाण्ड रखा गया है।
सुंदरकाण्ड में हनुमानजी का लंका प्रस्थान,
दहन और लंका से वापसी तक के घटनाक्रम आते हैं। इस सोपान के मुख्य घटनाक्रम
हैं-हनुमान जी का लंका की ओर प्रस्थान, विभीषण से भेंट, सीता से भेंट करके उन्हें श्रीराम
की मुद्रिका देना, अक्षय कुमार का वध, लंका दहन और लंका से वापसी। सुंदरकांड में तीन
श्लोक, साठ दोहे तथा पांच सौ छब्बीस
चौपाइयां है।
शुभ कार्यों की शुरुआत से पहले सुंदरकांड का
पाठ करने का विशेष महत्व माना गया है। जब भी हमारे जीवन में विघ्न हों, कोई काम नहीं
बन रहे हों तो सुंदरकांड के पाठ से शुभ फल प्राप्त होने लग जाते हैं। भगवान श्रीराम
जी व हनुमान जी की कृपा बहुत ही जल्दी मिल जाती है।
तुलसीदास जी द्वारा रचित सुन्दरकाण्ड अवधी भाषा
में है, जो कि हमें पढ़ते समय थोड़ा कम समझ में आता है। इसलिए मैंने सुन्दरकांड की
चौपाइयों को हिंदी की चौपाइयों में अनुवाद करने का प्रयास किया है। सुंदरकांड पढऩे
का फल तभी मिलता है, जब हम उसको समझ कर पढ़ें और सुंदरकांड में वर्णित भगवान श्रीराम
और हनुमान जी की लीलाओं का आध्यात्मिक आनंद ले।
अनुक्रमणिका
1. हनुमानजी का लंका प्रस्थान 13
2. लंका वर्णन हरिगीतिका छंद 16
3. विभीषण से भेंट 19
4. अशोक वाटिका 21
5. रावण राजसभा 33
6. लंका दहन 38
7. हनुमान वापसी 41
8. सुग्रीव सेना की तैयारी 47
9. हरिगीतिका छंद 49
10. मंदोदरी रावण संवाद 50
11. राम शरण में विभीषण 56
12. समुद्र पार करने पर विचार 64
13. समुद्र पर राम जी का क्रोध 72
14. आरती 76
रघुनाथजी के चरणों में स्तुति
रघुनाथजी ह्रदय की तुम अंतरात्मा,
कामना नहीं बची प्रभु, डर भी भगाना।
काम क्रोध लोभ बिन भक्ति सदा करे प्रभु,
रघुवर कृपालु हमको मत तुम भुलाना॥
हनुमान जी के चरणों में स्तुति
अतुलितबलकंचन, देहपरवतसुमेरू,
असुरदमनकर्ता, ज्ञानियों में अग्रज गुरू।
अद्भुत गुण वाले सिंधु, कपिराज हनुमन,
रघुपति प्रिय को हम कर रहे सादर नमन।।
हो...मगंल भवन अमंगल हारी, द्रबहु
सुदशरथ अजर बिहारी
राम सिया राम सिया राम जय जय राम
राम सिया राम सिया राम जय जय राम
हनुमानजी का लंका प्रस्थान
जामवंत की सुनकर वानी, याद आ गई शक्ति पुरानी।
बोले हनुमन अब मैं जाऊँ, सीताजी का पता लगाऊँ।।1।।
कहता है मन कारज होगा, मेरा आना जल्दी होगा।
होकर हर्षित शीश नवाया, रघुपति को ह्रदय में
बसाया।।2।।
सागर तीरे पर्वत सुंदर, कूद लगाई उस पर चढकर।
राम नाम का सिमरन करते, वीर हनुमन वेग से उड़ते।।3।।
जिस पर्वत पर चरण लगाते, पर्वत को पाताल दिखाते।
मुख से राम नाम जप जपकर, राम बाण के जैसे उडकर।।3।।
सागर रामदूत पहचाना, मैनाक इनको दो विश्रामा।
कहे मैनाक ओ हनुमाना, रुको विश्राम करके जाना।।4।।
हाथ जोड़ कपिवर कहें, अभी कहाँ विश्राम,
माँ सीता की खोज का, कर लूँ पूरण काम।।1।।
देखें देवों ने हनुमाना, परखने उनकी बुद्धि
ज्ञाना।
सर्पों की माँ भेजी सुरसा, कपिराज की लेने परीक्षा।।1।।
देवलोक से मैं हूँ आई, तुम हो मेरा भोजन भाई।
बोले हनुमन माँ जाने दो, सिया खोजकर के आने
दो।।2।।
पहले प्रभु का काज करूँगा, फिर भोजन तुम्हारा बनूँगा।
सुरसा लेकिन बात न मानी, बस भोजन करने की ठानी।।3।।
मुख सुरसा ने अजब बढ़ाया, चार कोस कपि बदन दिखाया।
हनुमन दूना रूप बढ़ाये, सुरसा को लघु बना हराये।।4।।
कोस चार सौ फैली सुरसा, कपि ने रूप धरा मच्छर
सा।
मुख में घुसकर निकले बाहर, विदा माँग ली शीश
नवाकर।।5।।
हनुमन से सुरसा कहे, बल बुद्धि है अपार।
राम काज पूरण भये, आशीष कर स्वीकार।।2।।
सागर मध्य निशचरी रहती, पंछी छाया देख पकड़ती।
उड़ता पंछी जकड़ा जाता, भोजन वो उसका बन जाता।।1।।
पकडऩे पवनसुत वो आई, जान निशाचरी ने गँवाई।
करके पार विशाल समुंदर, पहुँच गये अब वन के
अंदर।।2।।
देख हरितवन मन हर्षाया, भँवरों का गुंजन अति
भाया।
विविध तरह के पुष्प सुहाये, संग पशु पक्षी का
लुभाये।।3।।
था निकट ही बडा सा भूधर, देखी लंका चढकर ऊपर।
शिवजी ने उमा को बताया, रामकृपा ने काज बनाया।।4।।
नहीं बड़ाई कपि की इसमें, काल भी, रामजी के
बस में।
चारों तरफ विशाल समंदर, लंका नगरी उसके अंदर।।5।।
लंका वर्णन हरिगीतिका छंद
मणियों जडि़त स्वर्ण रचित, दीवार शोभित थी बनी।
मंजुल सदन बाजार, गलियाँ थी सजी सुंदर घनी।।
खच्चर अश्व, हाथी, सडक़ पर अनगिनत यूँ दौड़ते।
राक्षस अनेकों रूप धरकर, दल बना कर डोलते।।1।।
वन बाग उपवन वाटिका, तालाब कूपों से सजे।
नर-नाग सुर गंधर्व कन्या, रूप मुनि को भी जँचे।।
बलवान कुश्तीबाज से, सारे अखाड़े गूँजते।
चारों दिशाओं में करोड़ों, वीर योद्धा घूमते।।2।।
मानव मिले या पशु मिले, भोजन समझ कर लूटते।
लंका नगर को देख के, हनुमान विधि कुछ बूझते।।
तुलसी कहें लंका कथा, मैंने अभी थोड़ी कही।
रघुवीर जी के बाण से बस, मुक्ति इनकी अब हुई।।3।।
सोच रहे हनुमान जी, धरू मसक का वेश।
पहरेदार अभी बहुत, रात्रि काले प्रवेश।।3।।
मसक रूप धर कपिवर आये, रघुपति जी को मन से ध्याये।।
खड़ी लंकिनी लंका द्वारे, बोली तुझे जाना कहाँ
रे।।1।।
सुन चोर तू भोजन हमारा, हनुमत ने घूँसा दे मारा।
लुढक़ पड़ी लंकिनी धरा पर, मुख से रुधिर आ गया
बाहर।।2।।
धीरे धीरे अब वह उठती, हाथ जोडकर विनती
करती।
रावन ने जब वर था पाया, ब्रह्मा जी ने मुझे
बताया।।3।।
लंका में वानर आयेगा, मुठिका से तुझको मारेगा।
समझ लेना काल है आया, अंत राक्षसों ने अब पाया।।4।।
मेरे पुण्य भाग है जागे, रामदूत का दर्शन पाके।।5।।
स्वर्ग मोक्ष का सुख नहीं, मुझे अभी स्वीकार,
छण भर का सतसंग ये, दे गया सुख अपार।।4।।
दूर देश को जब भी जाओ, रघुपति को ह्रदय में
बसाओ।
कारज पूरन सब हो जाता, कृपा रामजी की है पाता।।1।।
विष मिलता अमृत हो जाता, शत्रु जल्दी मित्र
सा भाता।
सागर गोखुर सा बन जाता, अंगारा शीतलता लाता।।2।।
राम कृपा जिस पर भी करते, पर्वत धूल से उसे
लगते।
लघु रूप धरे फिर से कपिवर, ध्याया राम को पहुँचे
नगर।।3।।
कपिराज हर महल में जाते, बड़े बड़े योद्धा को
पाते।
लंकेश के महल में आए, शयनकक्ष में रावन पाये।।4।।
विचित्र विशाल महल भयंकर, जानकी जी मिली ना
अंदर।
तभी दिखा भुवन अति सुंदर, हरि मंदिर भी बना
वहीं पर।।5।।
धनुष बने दीवार पर, लिखा राम का नाम।
तुलसीवृंद देख घने, हर्षित थे हनुमान।।5।।
विभीषण से भेंट
निशाचरों की है ये लंका, सज्जन मिलने में आशंका।।
विभीषण तब नींद से जागे, राम नाम को जपने लागे।।1।।
सुनकर राम नाम उस गृह से, हर्षित हुये हनुमन
ह्रदय से।
कदमों को उस ओर बढ़ाते, साधु संग में हानि न
पाते।।2।।
बने ब्राह्मण द्वार
बजाया, सुना विभीषण बाहर आया।
जोड़े हाथ पूछी कुशलता, भाई क्या हो
तुम हरि भक्ता।।3।।
देख तुम्हे मन
पुलकित होता, ह्रदय मेरा प्रेम में खोता।
क्या
रघुवीर स्वयं है आये, घर में मेरे भाग जगाये।।4।।
भक्त कहे प्रभु राम का, मैं वानर हनुमान,
सुनकर दोनों संग में, गाते जय श्रीराम।।6।।
राम नाम सुन इक दूजे से, गले मिले भाई के जैसे।
कहे विभीषण रहता ऐसे, दन्त के मध्य जिह्वा जैसे।।1।।
कब अनाथ पर दया करेंगे, रघुनाथ कब दुख ये हरेंगे।
हरिकृपा निशाचर पर कीनी, मुझे संत का दर्शन
दीनी।।2।।
प्रभु मुझ पर करूणा बरसाये, राम भक्त के दरश
कराये।
हनुमन कहे ये रीति प्रभु की, सेवक पर सदा प्रीति
प्रभु की।।3।।
मैं वानर हूँ नीच जाति का, चंचल जिद्दी हठी
प्रकृति का।।
प्रात: ले जो नाम हमारा, पाये ना वो कहीं अहारा।।4।।
सुनो सखा मुझ अधम पर, कृपा करें रघुवीर,
नयनों में हनुमान के, भर भर आये नीर।।7।।
अशोक वाटिका
राम जी को जो जान जाता, व्यर्थ वो जीवन ना गँवाता।
राम नाम की महिमा न्यारी, मिलती
सदा शांति सुखकारी।।1।।
राम जी की जानकी प्यारी, कहाँ
मिलेंगी वो बेचारी,
विभीषण मुझे पता बता दो, सीता माँ का दरश दिखा
दो।।2।।
कहे विभीषण, हे हनुमाना, अशोक वन में सीता पाना।
मसक रूप धर वन में आये, तरू
छाया में माँ को पाये।।3।।
मन से माँ को शीश नवाया, चढ़ वृक्ष पर आसन लगाया।
चार पहर बैठ वहाँ बीता, दुर्बल सी दिखतीं थीं
सीता।।4।।
नयनों से घुटने लगा, राम चरण में लीन,
दुखी हुये हनुमन बहुत, देख जानकी दीन।।8।।
पीड़ा ये देखी ना जाती, दुख से काँप रही थी
छाती।
मन में अब ये सोच विचारे, कैसे माँ के दुख संहारे।।1।।
सजधज कर रावण तब आया, साथ बहुत सी नारी लाया।
साम, दान, भय भेद दिखाया, हर विधि को उसने अपनाया।।2।।
बन जा तू मेरी पटरानी, होंगी दासी ये सब रानी।
सुन सिया ने तिनका उठाया, ह्रदय से राम जी को
ध्याया।।3।।
रामचंद्र भानू सा चमके, दस मुख तू जुगनू सा
दमके।
राम बाण को तू ना जाने, महिमा उनकी ना पहचाने।।4।।
दुष्ट तुझे लज्जा नहीं आती, हर लाया कायर की
भाँती।।5।।
सुन रावण वचन कड़वे, हुआ क्रोध से लाल।
सिया मारने के लिये, ली तलवार निकाल।।9।।
नहीं करोगी मान हमारा, कट जायेगा शीश तुम्हारा।
हमको अपना प्रियवर मानों, वरना मृत्यु का संग
जानो।।1।।
सीता बोली हे दसकंधर, प्रभु भुजा है कमल सी
सुंदर।
वही कंठ का हार बनेगी, वरना ये तलवार सजेगी।।2।।
सुन तलवार न कर तू देरी, हर ले सारी पीड़ा मेरी।
सिया मारन कृपाण उठाई, मंदोदरी रोकने आई।।3।।
कही नीति रावण समझाया, तभी दासियों को बुलवाया।
सीता को सभी भय दिखाओ, एक मास तक इसे मनाओ।।4।।
आई अनेक राक्षसीं, सीताजी के पास।
तरह तरह के भय दिखा, करती थी उपहास।।10।।
राक्षसी एक त्रिजटा आई, बुद्धि बड़ी थी उसने
पाई।
रामजी का यशगान गाया, सपना देखा हुआ सुनाया।।1।।
लंका में वानर आयेगा, आग लगा कर वो जायेगा।
राक्षसों का संहार होगा, रावण का तिरस्कार होगा।।2।।
मुंडित सर खंडित कर होगा, नग्न रावण गधे पर
होगा।
यमलोक वो चला जायेगा, विभीषण राज को पायेगा।।3।।
राम जी का यशगान होगा, सियाजी का सम्मान होगा।
जल्दी सच हो गा ये सपना, देती वचन धीर तू धरना।।4।।
डरी राक्षसी, लगी काँपने, चलीं सिया के चरण
थामने।।5।।
सोच रहीं मन में सिया, एक माह पश्चात।
आयेगा ये मारने, पापी नीच निशाच।।11।।
सीता कहे सुनो हे माता, अब ये दुख सहा नहीं
जाता।।
लाकर लकड़ी चिता सजा दो, उसमें माँ बस अग्न
लगा दो।।1।।
जोड़े हाथ राम की रानी, नहीं सहन रावण की वानी।
बार बार त्रिजटा समझाये, राम
जी का प्रताप सुनाये।।2।।
सो जाओ अब सुबह मिलूँगी, रात में अग्नि ना ढूँढूगी।
सीता विधाता को मनाये, अग्नि बिना पीड़ा ना
जाये।।3।।
अंबर में अंगारे दिखते, पर क्यों ना
भूमी पर गिरते।।
चंदा भी तरस नहीं खाता, वो
भी अगन नहीं बरसाता।।4।।
वृक्ष अशोका तू ही सुन ले, नाम अशोका शोका हर
ले।
अग्नि तू पल्लव से गिरा दे, विरह की पीड़ा को
मिटा दे।।5।।
देखी जो अति व्याकुल सीता, हनुमन का छण युग
सा बीता।।6।।
अंगूठी डाली तभी, करके हृदय विचार।
अंगारा समझी सिया, हर्षित हुई अपार ।12।।
अंगूठी देखी अति सुंदर, राम नाम था अंकित उस
पर।
चकित हो अंगूठी उठातीं, हर्ष शोक से अकुला जातीं।।1।।
कौन जो रघुपति को हराये, माया से ये रची न जाये।
सीता सोच सोच घबरायें, हनुमन मधुर स्वर में
गायें।।2।।
लगे राम की कथा सुनाने, माता के दुख थे बिसराने।
होकर मगन जानकी बोली, किसने मीठी वाणी घोली।।3।।
होते प्रकट क्यों नहीं
भाई, जिसने है ये कथा सुनाई।
गये निकट हनुमान सिया के, बैठ गई सिया मुँह
फिरा के।।4।।
दूत राम का मैं हूँ माता, शपथ मैं रघुवीर की
खाता।
उनकी आज्ञा से मैं आया, अंगूठी ये मैं ही लाया।।5।।
सीता पूँछे हे कपिभाई, कहाँ राम से हुई मिलाई।
हनुमन ने हर बात बताई, माँ को सारी कथा सुनाई।।6।।
सुने वचन हनुमान के, जागा मन विश्वास।
मन करम और वचन से, है रघुवर का दास।।13।।
सेवक जान प्रीति अति आई, नयनों में मोती भर
लाई।
चारों ओर दुख का समंदर, आए हो तुम जीवन बनकर।।1।।
बैठो हनुमन मुझे बताओ, कुशल मंगल सबका सुनाओ।
मेरे प्रभु कैसे रहते हैं, अनुज लखनजी क्या कहते हैं।।2।।
कृपा सभी पर रघुवर रखते, क्यों मुझ
पर निष्ठुर हैं दिखते।।
नाथ मुझे कब दर्शन देंगे, कब नयनों की प्यास
हरेंगे।।3।।
मुझको बिल्कुल भुला दिया है, मैंने क्या अपराध
किया है।
देख विरह से व्याकुल सीता, बोले हनुमन वचन विनीता।।4।।
दोनों भाई सकुशल लगते, पर मन में पीड़ा अति
रखते।
याद आपको करते रहते, दुगना प्रेम आपसे करते।।5।।
रघुपति का संदेश माँ, सुनना धर कर धीर।
कहकर कपि प्रसन्न हुये, नयन बहायें नीर।।14।।
कहे राम वियोग में सीते, सभी हुये मेरे विपरीते।
तरुन पल्लव अगन बरसाये, रातें काल रात्रि बन
जाये।।1।।
चंदा रवि सा मुझे तपाये, कमल शूल जैसे चुभ जाये।
मेघा गरम तेल बरसाये, पवन सर्प सा विष फैलाये।।2।।
हर सुख अब पीड़ा लगता है, कहने से दुख घट सकता
है।
हे सीते, दुख किसे सुनाऊँ, मन को ही बस मैं
बतलाऊँ।।3।।
मन सिया के संग ही रहता, सुन लेना मन क्या है
कहता।
संदेशा जो सुना पिया का, प्रेम मगन मन हुआ सिया
का।।4।।
बोले कपिधीर धरो माता, राम नाम सबका सुख दाता।
याद करो रघुवर की लीला, तोड़ो अब ये भय का टीला।।5।।
पतंगों जैसे राक्षस, अगन हैं रामतीर।
होंगे जलकर राख सब, मात धरो तुम धीर।।15।।
आप यहाँ पता अगर होता, विलंब राम जी का न होता।
राम बाण रवि सा आयेगा, तिमिर असुर का छट जायेगा।।1।।
माते तुम्हे साथ
ले जाता, प्रभु जी की यदि आज्ञा पाता।
दुख के ये दिन ढल जायेंगे, राम संग वानर आयेंगे।।2।।
राक्षस सब मारे जायेंगे, राम आपको ले जायेंगे।
तीन लोक में यश छाएगा, ऋषियों को बल मिल जायेगा।।3।।
रावण की सेना अति भारी, राक्षस हैं अतुलित भयकारी।
वानर जीतेंगे ये लंका, यह मेरे दिल में है शंका।।4।।
सुन हनुमन ने बदन बढ़ाया, पर्वत के जैसा दिखलाया।
देखते ही शत्रु डर जाये, युद्ध करने आगे न आये।।5।।
माता को विश्वास दिलाये, पवनसुत लघु रूप में
आये।।6।।
हे माते हम कपि नहीं, बल बुद्धि में विशाल,
प्रभु प्रताप से बूँद भी, भर देती हैं ताल।।16।।
सीता जी ने अब ये माना, है बलवंत भक्त हनुमाना।
आशीष तुम्हे सदा
हमारा, बल और विनय बढ़े अपारा।।1।।
अजर अमर सुत तुम बन जाना, पूँजी सदा गुणों की
पाना।
राम कृपा सुज्ञानी बनाये, तुम्हारा यश
त्रिलोक गाये।।2।।
माँ चरणों में शीश नवाते, हाथ जोडकर हनुमन
गाते।।
मैं कृतार्थ हो गया माता, आपका वर खाली न जाता।।3।।
जग जाने ये सुंदर बाता, वर का फल जल्दी मिल
जाता।।
फल लदे वृक्ष पर अतिसारे, भूख मेरी अब ये पुकारे।।4।।
आज्ञा हो तो फल मैं खाऊँ, पेट की ज्वाला मैं
बुझाऊँ।
पुत्र निशाचर यहाँ विचरते, रखवाली नित वन की
करते।।5।।
उनसे मुझे भय नहीं माता, आज्ञा मैं आपकी चाहता।।6।।
बल चतुराई देख कर, आज्ञा देती मात।
प्रभुचरण ह्रदय में बसा, खाओ मधु फल तात।।17।।
सीताजी को शीश नवाये, अशोक वन के अंदर आये।
फल खाये तरू तोड़ गिराए, रखवाले सब मार भगाए।।1।।
प्राण बचा भागे रखवाले, आये रावण के वे द्वारे।
आया है वानर अति भारी, अशोक वाटिका है उजारी।।2।।
सुन रावण ने भेजे योद्धा, हनुमन को अब उपजा
क्रोधा।
कुछ को पटका कुछ को मारा, कुछ को छोड़ दिया
लाचारा।।3।।
रावण सुत अब अक्षय आया, साथ बड़ी सी सेना लाया।
बजरंगी ने वृक्ष उखाड़ा, मारा अक्षय और दहाड़ा।।4।।
वीर योद्धा डरे हुये, बचा रहे थे प्राण,
पूँछे कैसे आ गया, ये वानर बलवान।।18।।
रावण ने अक्षय को हारा, मेघनाद को जल्द पुकारा।
पुत्र तुम अब युद्ध को जाओ, दुष्ट कपि को बाँध
के लाओ।।1।।
देखूँगा कैसा ये बंदर, कूदा जो लंका के अंदर।
मेघनाद बलवान बड़ा था, जीत इंद्र को स्वर्ग
चढ़ा था।।2।।
हनुमन देखे राक्षस भारी, वृक्ष तोड़ गरजे भयकारी।
रथ के पहिये पर दे मारा, इंद्रजीत को भूमि उतारा।।3।।
बलवानों को कस कर पकड़े, मसल मसल कर उन को रगड़े।
मेघनाद पर हमला करते, लगता था दो हाथी लड़ते।।4।।
चढ़े तरू पर मार के घूँसा, मेघनाद को आई मुरछा।
इंद्रजीत उठकर कुछ पल में, लगा तभी माया को रचने।।5।।
हर विधि को उसने अपनाया, पवनपुत्र को जीत न
पाया।।6।।
मेघनाद ने अब किया, ब्रह्म अस्त्र का वार।
महिमा मिट जाये कहीं, कपिमन करें विचार।।19।।
रावण राजसभा
ब्रह्म अस्त्र का मान बढ़ाया, कपि ने निज तन
को बँधवाया।
गिरते गिरते सेना ढाये, धीरे धीरे मुर्छा आये।।1।।
नागपाश में कपिवर बाँधे, शिवजी कहे उमा से आगे।
राम नाम जो कोई जपता, जन्म मरण का बंधन कटता।।2।।
पवनपुत्र प्रभु रामदुलारे, सारे बंधन उनसे हारे।
प्रभु कारज पूरन करना था, रावण से कपि को मिलना
था।।3।।
राजसभा में कपि को लाये, निशचर दौड़े दौड़े
आये।
देखें तो उत्पाती बंदर, हनुमन देखे सभा भयंकर।।4।।
खड़े देवता हाथ जोडकर, शीश झुकाये कंपित होकर।
देख कपि को भय नहीं लगता, गरुड़ कभी सर्पों
से डरता।।511
देख दशानन कपि बँधा, उड़ा रहा उपहास।
अक्षय वध को याद कर, मन में हुआ उदास।।20।।
पूछे रावण, तू क्यों आया?
वन उजाडऩा कौन बताया।
सुना नहीं क्या नाम
हमारा, बिन डर के घूमे आवारा।।1।।
क्यों
तूने सब राक्षस मारे, प्राण नहीं तुझको हैं प्यारे।
सुन दस मुख बोले हनुमाना, मेरे प्रभु को तू
ना जाना।।2।।
जितने भी ब्रह्मांड सितारे, प्रभु की माया रचती
सारे।
जिनका बल त्रिदेव हैं रखते, पालन सृजन संहार
करते।।3।।
शेषनाग का बल भी इनसे, शीश पर ब्रह्मांड है जिसके।
प्रभु अनेक रूपों को धरते, देवों की रक्षा हैं
करते।।4।।
तोड़े शिव धनुष बड़ा भारी, खड़े थे सब नृप अहंकारी।
टूटा था अभिमान सभी का, सीता ह्रदय जीता तभी
था।।5।।
मारे शूरवीर बलशाली, खरदूषण, त्रिशिख और बाली।।6।।
जिनका थोड़ा बल मिला, जीता तू संसार।
दूत मैं उन्ही राम का, हर ली जिनकी नार।।21।।
जानता मैं प्रताप तुम्हारा, सहस्रबाहू से था हारा।
बाली से भी करी लड़ाई, जग में बड़ी हँसी उड़वाई।।1।।
लंकापति हँसता खिसिया कर, कहते हनुमन सारे उत्तर।
फल खाये क्यों? मैं
था भूखा, वानर का स्वभाव है रूखा।।2।।
किसको नहीं जान है प्यारी, सेना टूट पड़ी थी
सारी।
बँधकर भरी सभा में आना, करता लाज नहीं हनुमाना।।3।।
विनती करता हाथ जोडकर, बात सुनो अभिमान छोडकर।
रखो मान कुछ अपने कुल का, तजो भ्रम लो शरण रघुकुल
का।।4।।
सुर असुर मनुज को जो मारे, वो काल भी राम से
हारे,
उनसे कभी बैर ना कीजे, कहता यही जानकी दीजे।।5।।
शत्रु पर भी दया करे, ऐसे है रघुनाथ,
अपराध भुला दें सभी, रामशरण जो आत।।22।।
चरण कमल को ह्रदय बसाओ, अटल राज लंका का पाओ।
पुलस्तय ऋषि का यश अपंका, चंद्र पर लगाओ न कलंका।।1।।
राम नाम बिन कैसी वाणी, छोड़ दे दंभ रावण ज्ञानी।
नारी गहनों से सज जाती, वस्त्र बिन सम्मान न
पाती।।2।।
रामकृपा बिन सब मिट जाता, धन, बल, वैभव ना रह
पाता।
ताल सागर बन नहीं सकता, बिन बरसात सूखने लगता।।3।।
हे दशमुख मैं सत्य सुनाता, राम विरोधी मित्र
न पाता।
हज़ारों शंकर विष्णु ब्रह्मा, तुम्हे नहीं
दिला सकते क्षमा।।4।।
पीड़ा के हैं शूल ये, दंभ मोह अभिमान,
इनको रावण त्याग दे, भज ले तू श्रीराम।।23।।
कहे हनुमान हित की वाणी, भक्ति, ज्ञान नीति
की कहानी।
हँसकर कहे महा अभिमानी, देखो मिला गुरू बड़ा
ज्ञानी।।1।।
मृत्यु निकट आई है तेरी, जाने नहीं बुद्धि तू
मेरी।
सुन दशानन कहे हनुमाना, बुद्धि विपरीत मैंने
जाना।।2।।
कुपित नृप ने घोषणा कर दी, मारो इस मूरख को
जल्दी।
निशाचर मनवचन ये भाये, मंत्री संग विभीषण आये।।3।।
शीश झुकाकर करते विनती, दूत का वध नीति ना बनती।
दंड दीजिये दूजा स्वामी, सबने भर दी इसमें हामी।।4।।
सुनकर रावण बोला हँसकर, अंग भंग का कर दो बंदर।।5।।
ममता कपि की पूँछ पर, विभीषण दे बताय।
बाँधो कपड़ा तेल का, अग्नि देना लगाय।।24।।
लंका दहन
पूँछहीन वानर जायेगा, स्वामी संग चला आयेगा।
जिसकी बहुत बड़ाई हाँकी, देखूँगा मैं उसकी झाँकी।।1।।
सुनकर ये हनुमन मुसकाये, काम सरस्वती जी बनाये।
दसमुख की आज्ञा तब पाकर, तैयारी में जुटे निशाचर।।2।।
हनुमन पूँछ बढ़ाते जाये, कपड़ा तेल घटाते जाये।
वानर का ये अद्भुत खेला, नगरवासियों का था मेला।।3।।
नगरवासी कपि को चिढ़ाते, पैर मारते हँसी उड़ाते।
ढोल-बाजे, ताली बजाते, नगर में इधर-उधर घुमाते।।4।।
आग लगाकर पूँछ जलाई, बजरंगी ने बुद्धि लगाई।
लघु रूप में आ गये झट से, अटारी पर चढ़ गये
फट से।।5।।
डर कर चीखी राक्षस नारी, इधर उधर भागी बेचारी।।6।।
रामकृपा से चल पड़ी, पवन तेज उनचास।
अट्हास कर कपि गरजे, बढकर के
आकाश।।25।।
तन विशाल पर फुर्ती रखते, हर महल पर कूदकर चढ़ते।
पूँछ से सभी महल जलाये, देख नगरवासी चिल्लाये।।1।।
हाय मर गये हमें बचाओ, कोई तो ये अग्न बुझाओ।
सच कहा ये नहीं है बंदर, देव छिपा है इसके अंदर।।2।।
साधू का अपमान हुआ है, नगर धुएँ में बदल गया
है।
कपि ने पल में नगर जलाया, बस घर विभीषण का बचाया।।3।।
जिसने अग्नि को है बनाया, शिव कहें दूत उनका
आया।
साथ अग्नि ने खूब निभाया, राम काज में हाथ बढ़ाया।।4।।
पूँछ बुझा कर सिंधु में, किया तनिक विश्राम,
पास जानकी आ गये, बनकर लघु हनुमान।।26।।
दे दो एक निशानी माता, जैसे दिये मुझे रघुनाथा।
सीता चूड़ामणी उतारे, हर्षित हो हनुमन स्वीकारे।।1।।
कहें जानकी प्रणाम कहना, तात प्रभु से निवेदन
करना।
दीन दुखी के करुणा सागर, दुख हर लो अब मेरे
आकर।।2।।
जयंत जीता याद दिलाना, बाणों का प्रताप समझाना।
इस मास यदि नहीं आएँगे, जीवित मुझे नहीं पाएँगे।।3।।
तात कहो मैं कैसे जीऊँ, दुख का विष मैं कैसे
पीऊँ।
देख तुम्हे धीरज
होता था, लेकिन ये पल भी छोटा था।।4।।
समझाते माँ जानकी, हनुमन बारंबार।
शीश कमल पद में नवा, चले राम के द्वार।।27।।
हनुमान वापसी
हनुमन चले गरजकर भारी, गर्भ बचाती राक्षस नारी।
सागर लाँघा वापस आये, वानरों को देख किलकाये।।1।।
हर्षित हुये देख हनुमाना, जैसे नवजीवन मिल जाना।
मुख पर हनुमन के प्रसन्नता, तन सूरज सा तेज
चमकता।।2।।
काज पूरण हुआ है समझे, सुखी हुये हनुमन से मिलके।
रघुपति से मिलने कपि चलते, रस्ते भर सब बातें
करते।।3।।
मधुवन के अंदर अब आये, अंगद सहित मधुर फल खाये
रखवाले जब लगे डाँटने, घूँसे खाकर लगे भागने।।4।।
रखवाले कहने लगे, मधुवन रहे उजाड़।
सुन सुग्रीव हर्षित हुये, हुआ राम का काज।।28।।
सीता खोज नहीं कर पाते, मधुवन के फल कैसे खाते।
सुग्रीव मन में सोच विचारे, हनुमन वानर संग
पधारे।।1।।
प्रणाम करते शीश नवाकर, सुग्रीव मिलते गले लगाकर।
कहे हनुमान कृपा राम की, लंका में मिल गई जानकी।।2।।
हनुमन तुम जो वापस आये, हम वानर के प्राण बचाये।
सुग्रीव उनको गले लगाते, रघुपति जी से मिलने
जाते।।3।।
राम देखते वानर आते, हर्षित होकर पास बुलाते।
दोनों भाई बैठ शिला पर, गिरे सभी चरणों में
आकर।।4।।
करुणापति पूछे कुशल, बड़े प्रेम के साथ।
कहे वानर कुशल हुये, देख चरण रघुनाथ।।29।।
जामवंत कहते हे दाता, दया आपकी जो भी पाता।
शुभ मंगल कारज सब होते, सुर नर मुनि भी प्रसन्न
होते।।1।।
विजयी होकर विनय दिखाता, गुण का वह सागर बन
जाता।
तीनों लोकों में यश पाता, जन्म सफल उसका हो
जाता।।2।।
पवनसुत ने कृपा है पाई, बल और बुद्धि खूब दिखाई।
हज़ार मुख से करूँ बड़ाई, तो भी महिमा में लघुताई।।3।।
सुनकर कृपासिंधु हरषाये, पवनपुत्र को गले लगाये।
कैसे रहती वहाँ जानकी, कैसे रक्षा करें प्राण
की।।4।।
राम नाम पहरा बने, द्वार राम का ध्यान।
चरणों में नैना लगे, किस पथ जाये प्राण।।30।।
चूड़ामणि माँ की दिखलाई, हृदय से रघुपति ने
लगाई।
नयनों में आँसू भरती थीं, जनक दुलारी ये कहती थी।।1।।
अनुज संग प्रभु चरण पकडऩा, दीन बंधु से बस ये
कहना।
मन वचन कर्म से अनुरागी, कौन अपराध सीता त्यागी।।2।।
गलती एक हुई ये माना, बिछड़ी पर ना छोड़े प्राणा।
ये अपराध सजल नैनों का, प्राण
निकलने से है रोका।।3।।
विरह की अग्नि पल-पल आती, सूखी काया जल जल जाती।
साँसें चलती ज्वाला बढ़ती, नयनों
की वर्षा ना थमती।।4।।
रघु की छवि बादल बन जाती, नयनों को वो जल दे
जाती।
क्या-क्या
उनकी बात बताऊँ, कह दूँ तो दुख और बढ़ाऊँ।।5।।
एक एक पल बीतता, माँ का कल्प समान।
अब प्रभु जी जल्दी हरो, दुष्ट दलन के
प्राण।।31।।
सुन सीता दुख प्रभु ये कहते, कमल नैनों से अश्रु
बहते।
जो तन मन धन मुझ पर ध्याये, सपने में भी दुख
ना पाये।।1।।
कहे हनुमान दुख बस वोई, जब राम का भजन ना होई।
राक्षसों को दंड अब दीजे, दरश जानकी जी के कीजे।।2।।
रघुपति कहे सुनो हनुमाना, तुम सा उपकारी ना
जाना।
सुर नर मुनि ऐसा ना पाऊँ, कैसे मैं उपकार चुकाऊँ।।3।।
बार बार ह्रदय में विचारूँ, तेरे
ऋण से मैं अब हारूँ।
प्रेम नेत्रों से कपि निहारे, होकर पुलकित बाँह
पसारे।।4।।
देख प्रेम प्रभु राम का, हर्षित हों हनुमान।
चरणों में गिरकर कहे, रक्षा दो भगवान।।32।।
प्रभु राम जब ऊपर उठाते, चरणों में वापस गिर
जाते।
देख कमल हस्त कपि शीश पर, प्रेम मग्न शिव हुए
रीझकर।।1।
धीरज रख मन को समझाते, उमा जी को आगे बताते।
हनुमन को ह्रदय से लगाया, हाथ पकड़ कर निकट
बिठाया।।2।।
राक्षस करे सुरक्षा भारी, रावण भी था अत्याचारी।
कैसे तुमने बुद्धि लगाई, कहो कैसे लंका जलाई।।3।।
देखे जो प्रसन्नचित रामा, बोले मधुर वचन हनुमाना।
मैं शाखा मृग हूँ कहलाता, शाखा-शाखा कूद लगाता।।4।।
लाँघा समंदर वन उजारे, लंका जला निशाचर मारे।
नाथ ये आपकी प्रभुताई, नहीं मेरी इसमें बड़ाई।।5।।
मिल जाती जब प्रभु कृपा, कठिन नहीं है काज।
सागर में देती लगा, रूई भी है आग।।33।।
सुग्रीव सेना की तैयारी
आपकी भक्ति है सुखकारी, दे दो मुझको पालनहारी।
सुनकर कपि की भोली वाणी, ऐसा ही हो कहे भवानी।।1।।
हे उमा, जो राम को भजता, बिना भजन के चैन न
पड़ता।
जिसने राम नाम को गाया, रघुनाथ की भक्ति वो
पाया।।2।।
राम वचन सुन वानर सारे, जय जय जय रघुनाथ पुकारे।
रघुवर सुग्रीव को बताये, अभी विलंब नहीं है
भाये।।3।।
वानर सेना को बुलवाओ, चलने का आदेश सुनाओ।
नभ से देख देव हरषाये, पुलकित हुये सुमन बरसाये।।4।।
सेनापति सेना सहित, बुला लिये कपिराज।
वानर भालू झुंड में, करते अद्भुत काज।।34।।
चरण कमल में शीश नवाते, गरज-गरज कर बल दिखलाते।
राम जी सेना को निहारे, कृपा दृष्टि से सब को
तारे।।1।।
रामकृपा से बल को पाकर, पर्वत जैसे उड़ते वानर।
हर्षित हो राम पग बढ़ाते, शुभ
शगुन संग होते जाते।।2।।
राम काज हैं मंगलकारी, शगुन कहे यश होगा भारी।
बाम अंग फडक़ा पहचानी, आ रहे प्रभु जानकी जानी।।3।।
शुभ शगुन सिया जी को लगते, अशुभ शगुन रावण के
बनते।
सेना चलती थी बलशाली, वानर
भालू गरजे भारी।।4।।
नाखूनों के शस्त्र रखते, पर्वत पेड़ उठाकर बढ़ते।
दहाड़ते नभ में उड़-उड़ कर, गज भी सहम जाये सिकुड़कर॥5॥
हरिगीतिका छंद
चिंहाड़ते हाथी बड़े, धरती डरी सी डोलती,
कंपित हुये पर्वत घने, उठ सिंधु लहरें बोलती।
गंधर्व सुर मुनिनाग किन्नर, हर्ष
से सब रीझते,
सेना चली अब दिन दुखों के, जल्द
ही बस बीतते।।1।।
वानर भयानक कटकटाते, तेज
गति से दौड़ते,
जय राम कहते प्रबल होकर, हरि
गुणों को बोलते।।
भयभीत होकर सर्पराजा, शेष
जी कुछ सोचते,
कच्छप कड़ी सी पीठ, दंतों
से पकड़ कर रोकते।
लिख दी कथा कच्छप, कमर
पर दंत से अतिपावनी
रघुवीर जी प्रस्थान की, बाँते
सुनो मनभावनी।
कृपासिंधु श्रीराम जी, आये सागर तीर।
जमकर फल खाने लगे, वानर भालू वीर।।35।।
मंदोदरी रावण संवाद
जब से कपि जला गया लंका, तब से राक्षस करते
शंका।
अपने घर में सोच विचारे, राक्षस कुल अब कौन
उबारे।।1।।
जिनके दूत की शक्ति ऐसी, उनकी महिमा होगी कैसी।
दूत नगर की बात बताते, दुख मंदोदरी का बढ़ाते।।2।।
रावण के वो चरण पकड़ती, नीति भरी बातें वो करती।
श्री हरि का विरोध मत कीजे, उनकी
पत्नी वापस दीजे।।3।।
जब-जब याद राक्षसीं करतीं, खोकर गर्भ
वे हाथ मलतीं।
यदि भला चाहते हो स्वामी, मंत्री संग भेज दो
रानी।।4।।
पंकज वन सा वंश तुम्हारा, सिया सर्द रात अंधियारा।
सीता नहीं अगर लौटाई, शिव ब्रह्मा करें ना भलाई।।5।।
रामबाण हैं सर्प से, राक्षस लघु मंडूक।
राजन विचार लीजिये, हो ना जाये चूक।।36।।
सुनी मंदोदरी की वाणी, हँसी उड़ाता सठ अभिमानी।
कच्चे मन की होती नारी, मंगल में भी डरती सारी॥1॥
वानर सेना यदि आयेगी, राक्षस भोजन बन जायेगी।
सारा जग है जिससे काँपे, पत्नी उसकी शंका भाँपे।।2।।
कहकर उसको गले लगाया, अपना प्रेम स्नेह दिखलाया।
मंदोदरी मन में विचारे, रावण के भाग्य अब हारे।।3।।
राजसभा में रावण आया, संदेशा ये उसने पाया।।
पहुँची सेना सिंधु किनारे, मंत्री को दशानन
पुकारे।।4।।
उचित नीति अब हमें बताओ, करना क्या है
जुगत बनाओ।
हँसकर कहते मंत्री सारे, सुर असुर दशानन से
हारे।।5।।
ये तो नर वानर बेचारे, चुटकी
में हारेंगे सारे।।6।।
मंत्री वैध और गुरू, जब भी बोले झूठ।
राज शरीर और धर्म, तीनों जाते रूठ।।37।।
रावण के मन की वे कहते, सुनकर राजन गदगद रहते।
विभीषण तब महल में आए, भ्रात चरण में शीश नवाये।।1।।
आसन पाकर आज्ञा पाई, रावण हित की बात बताई।
चाहते यदि कल्याण अपना, छोड़ो परनारी का सपना।।2।।
जैसे चाँद चौथ का भारी, नाश करे वैसे परनारी।
चौदह भुवनों का भी स्वामी, हो जाता विनाश का
गामी।।3।।
गुण बुद्धि हो चाहे अपारा, तनिक
लोभ के आगे हारा।।4।।
काम क्रोध मद लोभ ये, कहे नरक के पंथ।
तजकर राम नाम भजो, जैसे भजते संत।।38।।
राम नहीं केवल इकराजा, सकल लोकों के महाराजा।
काल के भी काल कहलाते, भगवन हैं ये सब बतलाते।।1।।
अजित शाश्वत अनादि अनंता, सकल सृष्टि के हैं
भगवंता।
कृपा सिंधु धरती पर आये, मानव बनकर प्रेम दिखाए।।2।।
देव, ब्राह्मण, गाय व धरती,
सबके हित की चिंता रहती।
आनंद भक्तजन को देते, दुष्टजन के प्राण हर लेते।।3।।
बैर छोडकर शीश
नवाओ, रघुनाथ की शरण में जाओ।
सीताजी वापस कर आओ, प्रेम राम जी का तुम पाओ।।4।।
विश्व द्रोह भी जो कर जाता, पकड़े चरण शरण है
पाता।
जिनका नाम दुखों को हरता, प्रकट हुये वे ही
भगवंता।।5।।
बार बार विनती करूँ, हे राजन दसशीश।
तजकर मान मोह मद, जपो कोशलाधीश।। 39क।।
मुनि पुलस्ति ने जो कही, संदेशे में बात।
कह दी मैंने वो सभी, समझो अब तो तात।।39ख।।
माल्यवान सचिव हरषाये, विभीषण के वचन अति भाये।
कहते अनुज नीति में ज्ञानी, मानो
राजन सच ये वाणी।।1।।
क्रोधित हो रावण चिल्लाया, शत्रु इन मूरखों
को भाया।
जल्दी इनको मौन कराओ, बाहर का रस्ता दिखलाओ।।2।।
माल्यवान चले घर आये, पर विभीषण पुन: समझाये।
वेद पुराणों का है कहना, सुबुद्धि ही मानस का
गहना।।3।।
सुमति के संग संपत्ति रहती,
कुमति के संग विपत्ति
बढ़ती।
आपके ह्रदय अभी है कुमति, बुद्धि को विपरीत
ही रखती।।
अहित को हित दिखाने लगती, साथ शत्रु का पाने
बढ़ती।
सीताजी की प्रीत चाहते, क्यों कालरात्रि
पास बुलाते।।
चरण पकड़ मैं आपसे, माँगू एक दुलार।
सीता दे दो राम को, इसी में हित अपार।।40।।
सुन विभीषण की नीति वाणी, क्रोध करे रावण अज्ञानी।
सुनता नहीं दुष्ट तू मेरी, मृत्यु निकट आई है
तेरी।।1।।
अन्न तुझे मेरा है खाना, गुणगान शत्रु का ही
गाना।
जग में क्या कोई
है ऐसा, भुज में बल हो मेरे जैसा।।2।।
लंका में निवास तू करता, तपस्वी पर विश्वास
रखता।
नीति मूरख उसको बताना, मुझसे अभी लात ही खाना।।3।।
चरण पकड़ कर विनती करते, खाकर
लात भी नहीं रुकते,
पिता होते राजन हमारे, हित
ही होता जो वो मारे।।4।।
बात मान लो बस ये स्वामी, राम नाम ही भजते
ज्ञानी।
शिवजी ने उमा को बताया, संतजनों में गुण ये
पाया।।5।।
बुरे की भी भलाई करते, करुणा सदा ह्रदय में
रखते।
चल दिये आकाश के रस्ते, मंत्रियों को साथ भी
रखते।।6।।
सर्व सत्य श्रीराम हैं, करता हूँ उद्घोष।
जा रहा रघुवीर शरण, ना देना अब दोष।।41।।
राम शरण में विभीषण
चले विभीषण राघव द्वारे, आयुहीन अब राक्षस सारे।
साधु का अपमान जो करता, उसका
भाग कभी ना जगता।।1।।
दशानन जब विभीषण त्यागा, उस ही छण वह हुआ अभागा।
चले विभीषण हर्षित होकर, ले मनोरथ मन में पिरोकर।।2।।
दरशन राम चरण के होंगे, कोमल लाल वरण के होंगे।
दुखियों को उबारने वाले, अहिल्या को तारने वाले।।3।।
दंडक वन को पावन करते, सीताजी के मन में बसते।
कपटी मृग का पीछा करते, शिव के ह्रदय कमल से
खिलते।।4।।
जिन चरणों की पादुका, भरत ह्रदय को भाय।
उन पद कमलों का मुझे, दरशन अब हो जाय।।42।।
राम स्नेह का किया विचारा, पार कर लिया सागर
सारा।।
वानरों नें विभीषण रोका, शत्रु मानकर उसको टोका।।1।।
सुग्रीव को सब बात बताई, आया यहाँ दशानन भाई।
सुनकर मुस्काये रघुराई, अपनी राय बताओ भाई।।2।।
कहे सुग्रीव निशाचर माया, छल कपट सदा इनको भाया।
लेने भेद हमारा आया, मूरख की बाँधो अब काया।।3।।
सखे नीति तुम सही सुनाये, पर शरणागत मुझको भाये।
शरणागत का भय मैं हरता, उस पर कृपा सदा ही करता।।4।।
नाथ वत्सल प्रेम बरसाये, सुनकर ये हनुमन हरषाये।।5।।
अहित समझकर जो करे, शरणागत का त्याग।
उनके दर्शनमात्र से, खो जाता है भाग।।43।।
कोटी ब्राह्मण जिसने
मारे, आकर मेरी शरण पुकारे।
त्याग नहीं उसका मैं करता, पाप पुराना जल्दी
कटता।।1।।
पापी का स्वभाव कहलाता, भजन उसे मेरा न सुहाता।
दुष्ट ह्रदय का यदि वह होता, मेरे सम्मुख समय
न खोता।।2।।
निर्मल मन मुझको है पाता, छल कपट मुझको नहीं
भाता।
भेद जानना यदि है उसको, हानि बताओ देगा किसको।।3।।
जग भर के ये राक्षस सारे, लक्ष्मण पल भर में
ये मारे।
मेरी शरण अगर आयेगा, प्राणों सा प्रिय बन जायेगा।।4।।
विभीषण को बुलाइये, कहते कृपालु धाम।
सुनते ही कपि बढ़ चले, गाकर जय श्रीराम।।44।।
आदर सहित विभीषण लाये, करूणापति के दरश कराये।
देख सामने दोनों भ्राता, नयनों में आनंद समाता।।1।।
देखे जो राम और लखना, भूल गये वो पलक झपकना।
पंकज नयन विशाल भुजाएँ, श्याम
छवि में राम अति भाये।।2।।
कंधे शेरों जैसे दिखते, कामदेव मुख देख मचलते,
पुलकित हुये नयन भर आये, विभीषण मधुर वचन सुनाये।।3।।
नाथ दशानन का मैं भाई, आसुरी देह मैंने पाई।
पापी बनना हमें सुहाता, उल्लू अंधियारा चाहता।।4।।
सुनकर यश मैं आपका, आया हूँ रघुनाथ।
सेवक को प्रभु चाहिये, भव भंजन का साथ।।45।।
दंडवत ज्यों विभीषण करते, हर्षित प्रभु तुरंत
ही उठते।
दीनवचन रघुवर मन भाये, प्रेम से उन्हें गले
लगाये।।1।।
लक्ष्मण ने भी ह्रदय लगाया, उनको अपने निकट
बिठाया।
हे लंकेश! प्रभु ने पुकारा, कैसा है परिवार
तुम्हारा।।2।।
दुष्टजन का वहाँ है डेरा, कैसे तुम्हे धर्म
ने घेरा।
जानता मैं स्वभाव तुम्हारा, तुम्हे अधर्म
नहीं है प्यारा।।3।।
तात दुष्ट असुरों को सहना, इससे भला नरक में
रहना।
दयालु दृष्टि आपकी पाई, धन्य हुआ हूँ मैं रघुराई।।4।।
लोभ मोह को त्यागकर, जपो राम का नाम
मंगल हो जाये सभी, मन पाये विश्राम।।46।।
मन में बसे पाप का डेरा, मोह, मद, अभिमान का
घेरा।
रघुनाथ जब मन में समाये, रामबाण से सब उड़ जाये।।1।।
काम क्रोध घना अंधियारा, राग द्वेश को लगता
प्यारा।
मन में राम ज्योत जब जलती, पल
में ताकत इनकी घटती ।।2।।
अब मैं कुशल मिटे भय सारे, चरण कमल देखे अति
प्यारे।
जिस पर हुये राम अनुकूला, मिट जाते सब उसके
शूला।।3।।
अधम स्वभाव नाथ मैं रखता, आचरण शुभ नहीं हूँ
करता।
जिसका रूप मुनि नहीं ध्याते, प्रभु राम मुझे
ह्रदय लगाते।।4।।
सौभाग्य अद्भुत मिला, बना राम का दास,
ब्रह्मा शिवजी
भी रहें, जिन चरणों के पास।।47।।
प्रभु कहे मित्र तुम्हे बताऊँ,
स्वभाव अपना आज सुनाऊँ।
उमा शिव काक भुशुण्डि जाने, मेरी महिमा को पहचाने।।1।।
सारे जग में पाप किया हो, शरण यदि वह मेरी लिया
हो।
छल कपट मद मोह छूट जाता, जल्दी वह साधू बन जाता।।2।।
जिसने सभी मोह के धागे, चरणों में मेरे हैं
बाँधे।
मन बुद्धि को मुझ में लगाया, भय शोक से मुक्ति
वह पाया।।3।।
ऐसे सज्जन मन में बसते, मेरे मन से नहीं निकलते।
जैसे लोभी धन को चाहे, वैसे सज्जन मुझको भाये।।4।।
भक्तजन का उद्धार करता, मानव तन इस कारण धरता।।5।।
जो उपासक करे सदा, ब्राह्मणों का मान।
पर उपकार धर्म कहे, वो नर प्राण समान।।48।।
गुण दिखते लंकेश तुम्हारे, मुझको
लगते हैं अति प्यारे।
राम वचन सुन वानर सारे, गाते राम नाम जयकारे।।1।।
अमृत वचन रघुपति के भाये, कानों ने भी भाग जगाये।
पंकज पद में शीश नवाये, प्रेम ह्रदय में सम्मान पाये।।2।।
सारे लोक के आप स्वामी, रक्षक भी प्रभु अंतर्यामी।
जो भी वासना ह्रदय आई, प्रीत की नदियाँ ने बहाई।।3।।
माँगता हूँ भक्ति वो सारी, शिव को लगती है जो
प्यारी।
कहकर एवमस्तु श्री रामा, सिंधुजल को हाथ में
थामा।।4।।
दरश मेरा निष्फल न जाता, बिन इच्छा ही सब कुछ पाता।
राम जी राजतिलक लगाये, नभ भी पुष्पों को बरसाये।।5।।
अग्नि दशानन क्रोध की, विभीषण मन जलाय।
लंका देकर राम जी, जलती अग्न बुझाय।।49क।।
शिव रावण को जो दिये, देने पर दस शीश,
सकुचाकर लंका वही, दिये कौशलाधीश।।49ख।।
कृपासिंधु को जो ना भजता, बिन पूँछ का पशु ही रहता।
विभीषण को अपना बनाया, वानर कुल के मन ये भाया।।1।।
सबके दिल में बसने वाले, धरते रूप भक्त रखवाले।
मानव बन धरती पर आये, नीति धर्म के वचन सुनाये।।2।।
समुद्र पार करने पर विचार
हे सुग्रीव, विभीषण बताओ, सागर पार की विधि
सुझाओ।
जलचर अनेक इसके अंदर, लगे पार करना है दुष्कर।।3।।
विभीषण कहे बाण आपका, नीर सुखा दे कोटि सिंधु
का।
किंतु ऐसा नीति है कहती, करें प्रथम सिंधु से
विनती।।4।।
सिंधु पूर्वज आप के, बता देंगे उपाय,
व्यर्थ परिश्रम के बिना, सेना पार हो जाय।।50।।
सखा नीति तुम भली बताये, सागर विनती कर ली जाये।
वचन ये लक्ष्मण को न भाये, मन को प्रभु आज्ञा
न सुहाये।।1।।
नाथ आस न देव से कीजे, तपता बाण चला ही दीजे।।
कायर मन के यही सहारे, दैव दैव आलसी पुकारे।।2।।
हँसकर रघुपति बोले लखना, होगा ये ही धीरज रखना।
छोटे भाई को समझाये, सागर तट पर कदम बढ़ाये।।3।।
करते प्रणाम शीश नवाकर, बैठे वहाँ आसन बिछाकर।
रावण दूत वहाँ दो आये, भेद विभीषण का मिल जाये।।4।।
लीला सारी देखते, रखकर कपि का भेष।
प्रभु गुण को भजने लगे, देखे स्नेह विशेष।।51।।
प्रभु प्रीत को प्रेम से गाये, कपटी रूप भूलते
जाये।।
वानर शत्रु दूत पहचाने, बाँधा झट सुग्रीव को
थामें।।1।।
कपीश कहे सुनो सब वानर, काटो अंग भेजो निशाचर।
वानर दौड़े दौड़े आये, बाँधा चारों ओर घुमाये।।2।।
तरह तरह से लगे मारने, नाक कान को लगे काटने।
अंत में उनको युक्ति आई, सौगंध रघुपति की खिलाई।।3।।
देख तमाशा लक्ष्मण आये, दया दिखाई उन्हें छुड़ाये।
रावण को देना ये पाती, कहना पढ़ लेहे कुलघाती।।4।।
कहना रावण मूढ़ से, तुम मेरा संदेश।
भेज दे जानकी वरन, नहीं बचेगा शेष।।52।।
दूत चल दिये शीश नवाकर, राम लखन की महिमा गाकर।
गाते गाते लंका आये, रावण चरण माथे लगाये।।1।।
दशमुख उनसे पूछे हँसकर, विभीषण कहाँ बैठा छिपकर।
कैसा है अब मूरख भाई, मृत्यु जिसकी निकट है
आई ।।2।।
लंका को उसने है त्यागा, गेहूँ का घुन बना अभागा।
वानरों संग पिस जायेगा, काल जल्द उसको खायेगा।।3।।
सागर उनको रहा बचाये, निशाचरों को वो तरसाये।
तपस्वियों की बात सुनाओ, कितना मेरा डर बतलाओ।।4।।
सुनकर यश मेरा वहाँ, भागे क्या रणछोर।
मुझको अब जल्दी बता, कितना उनमें जोर।।53।।
दूत बोलते हाथ जोडकर, सुनना राजा क्रोध छोडकर।
मिले राम से छोटे भाई, करते राजतिलक रघुराई।।1।।
हम दूतों को कपि पहचाने, नाक
कान को लगे काटने।
राम सौगंध उन्हें खिलाई, जैसे-तैसे जान बचाई।।2।।
राम सेना हम क्या बताये,
अनेक मुख भी ना कह पाये।
विविध तरह के भालू बंदर, मुख और तन से हैं भयंकर।।3।।
लंका में था जो कपि आया, वो तो बल में छोटा
पाया।
योद्धा सारे शक्तिशाली, हाथी जैसे है बलशाली।।4।।
मयंद अंगद केसरी, जामवंत नल नील।
तरह तरह के योद्धा, बड़े बड़े बलशील।।54।।
द्विविद गद विकटास भयंकर, दधिमुख शठ निशठसे
लगे डर।
सारे कपि सुग्रीव के जैसे, थोड़े नहीं करोड़ों
ऐसे।।1।।
अतुलित बल है राम कृपा से, तीन लोक लगते तिनका
से।
ये सत्य है नहीं ये भ्रम है, सेनापति अठारह
पदम है।।2।।
एक एक वानर है ऐसा, जीत लेगा तुम्हे लंकेशा।
पलभर में सुखा दें समंदर, विशाल पर्वत उसमें
भरकर।।3।।
होकर निडर वे हैं गरजते, लगता अभी लंका निगलते।
पर रघुवीर आज्ञा न देते, उनका क्रोध शांत कर
लेते।।4।।
भालू कपि के शीश पर, रामचंद्र का हाथ।
करोड़ों काल दे हरा, ईश्वर शक्ति साथ।।55।।
बल बुद्धि है उनमें भयंकर, बाण एक सुखा दें
समंदर।
धर्म नीति से कारज करते, विभीषण
का भी मान रखते।।1।।
विभीषण ने युक्ति बतलाई, सागर स्तुति करिये
रघुराई।
रावण हँसे बात ये सुनकर, ऐसो को ही मिलते बंदर।।2।।
विभीषण वचन कायर वाला, समंदर कहाँ सुनने वाला।
छोड़ो अब ये महिमा गानी, शत्रु बुद्धि मैंने
है जानी।।3।।
जिसके सचिव विभीषण जैसे, उसका भाग्य जागे कैसे।
सुनकर क्रोध दूत को आया, निकाला पत्र और थमाया।।4।।
राम अनुज ने दी ये पाती, पढ़कर ठंडी
कर लो छाती।
पत्र दशानन पकड़े हँसकर, मंत्री मुझे सुनाओ
पढ़कर।।5।।
कुलघातक पाती कहे, मत बन तू लंकेश।
बचा नहीं सकते तुझे, ब्रह्मा विष्णु महेश।।56क।।
कमल चरण को थाम ले, छोड़ कपट अभिमान।
क्यों
पतंगा बनना है, खाकर प्रभु का बाण।।56ख।।
सुनकर यह रावण मुस्काया, ह्रदय में डर को था
छिपाया।
नन्हा तपस्वी भी बोलता, चीटीं है आकाश तोलता।।1।।
समझाता है दूत दोबारा, सत्य लिखा पाती में सारा।
क्रोध छोडकर फिर
से सुनना, राम का नाथ बैर न चुनना।।2।।
रघुनाथ कोमल ह्रदय वाले, तीनों लोकों को वे
पाले।
राम आप पर कृपा करेंगे, अपराध सभी क्षमा करेंगे।।3।।
इतना कहा बस मान लीजे, जानकी रघुनाथ को दीजे।
सुनकर ये रावण चिल्लाया, लात मारकर उन्हें भगाया।।4।।
विभीषण की राह अपनाई, दूत शुक ने भी शरण पाई।
रघुनाथ जी की कृपा आई, गति मुनि की वापस अब
पाई।।5।।
शिवजी कहते सुनो भवानी, पिछले जन्म दूत था ज्ञानी।
श्राप अगस्तय ऋषि का खाया, राक्षस देह में जन्म
पाया।।6।।
सागर विनय सुने नहीं, तीन दिन गये बीत।
कहें राम ये क्रोध से, भय बिना नहीं प्रीत।।57।।
समुद्र पर राम जी का क्रोध
लक्ष्मण अग्नि बाण ले आना, जिद्दी समंदर है
सुखाना।
विनय नहीं मूरख को भाती, कुटिल को प्रीत नहीं
सुहाती।।1।।
नीति वचन कंजूस न जाने, ज्ञानी बात कामी न माने।
लोभी को बैराग न भाये, शांत नहीं क्रोध रह पाये।।2।।
बंजर भूमी ये कहलाते, बीज बोने पर फल न आते।
कहकर प्रभु ने धनुष चढ़ाया, लक्ष्मण जी के मन
ये भाया।।3।।
अग्नि बाण को देख समंदर, ज्वाला उठी ह्रदय के
अंदर।
तड़प उठे जब सारे जलचर, ब्राह्मण रूप आया धरकर।।4।।
कनक थाल में रतन सजाये, कमल चरण में सभी बिछाये।
बोला जड़ अभिमान त्यागकर, माफ कीजिये मुझको
रघुवर।।5।।
केले फल देते नहीं, कितना लो तुम सींच।
काटो फल देते तभी, ऐसे होते नीच।।58।।
कहता सागर चरण पकडकर, अपराध क्षमा करना रघुवर।
पृथ्वी अग्नि जल वायु अंबर, जड़ स्वभाव इन सबके
अंदर।।1।।
माया ने जड़ प्रकृति बनाई, प्रेरणा प्रभु आप
से पाई।
सब ग्रन्थों ने यही बताया, सबका अलग स्वभाव
बनाया।।2।।
जैसा स्वभाव जिसका नाथा, सुखी उसी में वह रह
पाता।
भला किया मेरा रघुराई, मर्यादा मुझको सिखलाई।।3।।
ढोल गँवार शूद्र पशु नारी, मर्यादा है सब पर
भारी।
मर्यादा में रहना जरूरी, नहीं तो दंड है मजबूरी।।4।।
प्रताप प्रभु का मुझे सुखाये, सेना पार झट उतर
जाये।
यद्यपि अपयश मेरा होगा, पर पालन आज्ञा का होगा।।5।।
सुनकर विनीत वचन अति, मुसकाये रघुनाथ।
उपाय सेना पार का, बतलाओ तुम तात।।59।।
नल और नील हैं दो वानर, दिये वरदान उनको ऋषिवर।
जिस पहाड़ को वे छू देंगे, प्रभु बल से जल पर
तैरेंगे।।1।।
पूरा मैं सहयोग करूँगा, प्रभु की प्रभुता ह्रदय
रखूँगा।
सागर पर एक पुल बनेगा, तीनों लोक में यश बढ़ेगा।।2।।
रहे निशाचर उत्तर तट
पर, दुष्टता में है बहुत ऊपर।
पापियों का संहार करिये, मेरी पीड़ा को अब हरिये।।3।।
देख राम बल पौरूष भारी, सागर ह्रदय हुआ सुखकारी।
राक्षसों की कथा बतलाई, छूकर चरण तब ली विदाई।।4।।
हरिगीतिका छंद :
श्रीराम जी, को सिंधु की, बातें लगी मनभावनी।
कलयुग कहे ये कांड, सुंदर
है बड़ा दुख नाशनी।।
रघुनाथ जी के गुण, सुखों
के धाम,
संशय को हरे।
पढ़कर
जगत के मोह छूटे ,पार भव बंधन करे।।
मंगल दायक है बहुत, रघुनायक गुणगान।
भवसागर भी पार हो, पढ़कर सुंदरकांड।।60।।
जय श्रीराम जय श्री हनुमान
॥ आरती श्री रामायणजी की॥
आरती श्री रामायणजी की।। कीरति कलित ललित सिय पी की।।
गावत ब्रहमादिक मुनि नारद। बाल्मीकि बिग्यान
बिसारद।।
शुक सनकादिक शेष अरु शारद। बरनि पवनसुत कीरति
नीकी।।
आरती श्री रामायणजी की।।
गावत बेद पुरान अष्टदस। छओं शास्त्र सब ग्रंथन
को रस।।
मुनि जन धन संतान को सरबस। सार अंश सक्वमत सब
ही की।।
आरती श्री रामायणजी की।।
गावत संतत शंभु भवानी। अरु घटसंभव मुनि बिग्यानी।।
द्ब्रयास आदि कबिबर्ज बखानी। कागभुशुंडि गरुड़
के ही की।।
आरती श्री रामायण जी की।।
कलिमल हरनि बिषय रस फीकी। सुभग सिंगार मुक्ति
जुबती की।।
दलनि रोग भव मूरि अमी की। तात मातु सब बिधि
तुलसी की।।
आरती श्री रामायणजी की। कीरति कलित ललित सिय
पीय की।।
॥ आरती श्री हनुमान जी की॥
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ
कला की॥
जाके बल से गिरिवर कांपे। रोग दोष जाके निकट
न झांके॥
अंजनि पुत्र महा बलदाई। सन्तन के प्रभु सदा
सहाई॥
आरती कीजै हनुमान लला की।
दे बीरा रघुनाथ पठाए। लंका जारि सिया सुधि लाए॥
लंका सो कोट समुद्र-सी खाई। जात पवनसुत बार
न लाई॥
आरती कीजै हनुमान लला की।
लंका जारि असुर संहारे। सियारामजी के काज सवारे॥
लक्ष्मण मूर्छित पड़े सकारे। आनि संजीवन प्राण
उबारे॥
आरती कीजै हनुमान लला की।
पैठि पाताल तोरि जम-कारे। अहिरावण की भुजा उखारे॥
बाएं भुजा असुरदल मारे। दाहिने भुजा संतजन तारे॥
आरती कीजै हनुमान लला की।
सुर नर मुनि आरती उतारें। जय जय जय हनुमान उचारें॥
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई॥
आरती कीजै हनुमान लला की।
जो हनुमानजी की आरती गावे। बसि बैकुण्ठ परम
पद पावे॥
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्ट दलन रघुनाथ
कला की॥
॥ श्री राम स्तुति॥
श्री रामचन्द्र कृपालु भजमन हरण भवभय दारुणं।
नवकंज लोचन कंज मुखकर, कंज, पद कंजारुणं॥1॥
कन्दर्प अगणित अमित छवि नव नील नीरज सुन्दरम्ï।
पट पीत मानहु तडित रुचि शुचि नौमी जनक सुतावरं॥2॥
भजु दीनबन्धु दिनेश दानव दैत्य वंश निकंदनम्।
रघुनन्द आनन्द कन्द कोशल चन्द दशरथ नन्दनं॥3॥
सिर मुकुट कुंडल तिलक चारु उदारु अंग विभूषणं।
आजानु भुज शर चाप धर संग्राम जित खर-धुषणं॥4॥
इति वदति तुलसीदास शंकर शेष मुनि मन रंजनम्।
मम् हृदय कंज निवास कुरु कामादी खल-दल गंजनं॥5॥
राम स्तुति छंद:
मनु जाहिं राचेऊ मिलहि सो बरु सहज सुन्दर सांवरो।
करुणा निधान सुजान शील स्नेह जानत रावरो॥6॥
एहि भांति गौरी असीस सुनि सिय सहित हिय हरषि
अली।
तुलसी भवानी पूजी पुनि-पुनि मुदित मन मन्दिर
चली॥7॥
जानी गौरी अनुकूल सिय हिय हरषु न जाइ कहि।
मंजुल मंगल मूल वाम अंग फरकन लगे॥
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