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बढ़ती हुई जवानी,

 .. दिग्पाल छंद (२२१ २१२२)



बढ़ती हुई जवानी, हमको सता रही है

शुरुआत है नई ये, शायद बता रही है

जुल्फे बहुत उडाई, अब बाल उड न जाये,

लट बाँध कर उड़ो अब, उड़ना सिखा रही है।

मस्ती भरी चली जो, वो चाल भूल जाओ,

संभाल के रखो पग, पल-पल जता रही है।

घंटो ऩजर मिलाई, पलकें नही झुकाई,

ऐनक चढी नजर अब, नयना चिढ़ा रही है।

जो अंग थे फ़ड़कते, वो अंग दर्द करते,

अब मूव ही सहारा, ये ही जिता रही हैं।

तकलीफ़ से ड़रो ना, मुस्कान को न खोना,

स्वीकार कर खुशी से, अनुभव बढ़ा रही है।

बढ़ती हुई जवानी, हमको सता रही है

शुरुआत है नई ये, शायद बता रही है

शालिनी गर्ग

 

 

 

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