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पर्यावरण पर कविता

 पर्यावरण

धरा पर आज ये कैसा मानव ने है विष घोला,

खाँसता हुआ कंबल से नीला अंबर यू बोला।

श्वेत दुग्ध जल नदियाँ श्याम होकर वो खोंई,

पवन मदमस्त बहती थी दूषित होकर वो रोई।

पंक्षी ढूँढ रहे सारे कंक्रीट के वन में आशियाना,

कहीं तो पेड मिल जाये हमें थोडा है सुस्ताना।

कहते देव हे मानव विरासत में तू सब पाया,

ये अधिकार है तेरा तुझे बस याद यही आया।

कहती है माँ प्रकृति खुशी खुशी सब देती हूँ,

अपने बच्चो की समृद्धि में हर्षित हो लेती हूँ।

विनाशी तांडव तुम्हारा ,पर मुझको नहीं भाता है,

नदियों को नाले बनते देख, दिल मेरा रो जाता है।

जब वृक्ष जंगल के कटते, मुझको आवाज लगाते है,

पशु-पक्षी भी अपने मेरे, मेरे सामने प्राण गँवाते हैं।

सागर, पर्वत, धरती, अंबर सब पर मानव भार बढ़ा,

तरक्की करते करते तुमको, नशा अहंकार का चढा।

नीर बिका समीर बिका, मानव का अब ज़मीर बिका,

धन की खातिर मेरे बच्चो, मेरा सारा चीर बिका।

विनती बस इतनी यही अपनी माँ पर अब रहम करो,

प्रकृति की खुशियों की खातिर थोडी मुश्किल सहन करो।

स्वस्थ तन स्वस्थ मन मिलेगा जीवन से हर रोग घटेगा,

सब को खुशिया देकर बच्चो, ईश्वर आशीष तुम्हे मिलेगा।

शालिनी गर्ग

 

 

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