माँ तूने मुझे सिखाया कपडे तुरपना ,
मैं तो रिश्ते की चादर तुरपती रही,
रोज सुबह तुरपती हूँ पर शाम को उधड
जाती है।
मेरे सब्र का धागों की सीमा छोटी होती
जाती है।।
लगता है आज टाँका मजबूत है ये चल
जायेगा,
पर मेरा धागा है कच्चा, ये कब मुझे
समझ आयेगा,
मेरी सूई भी अकसर मुझे ही मुँह चिढाती
है,
मेरी जरूरत तुझे रोज रोज क्यूँ रहती
है।।
तेरी सहेली हूँ मैं लेकिन उसकी तो
कैंची से यारी है,
तू कितना भी जोड लगा ले, ये कैची
मेरे पर भारी है।।
समझा देती हूँ उसे मत मान तू अपने को
छोटी,
ये छोटी छोटी कोशिश भी बेकार नहीं
होती।
कहकर लग जाती हूँ फिर तुरपने अपनी
फटी चादर,
आँखों में आशाओ के चश्मे को चढाकर।।
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