हे अर्जुन तुम
महापुरुष हो, सभी जनों
के बनो नायक।
जैसे महान
कर्मों के द्वारा, आदर्श बने थे राजा जनक।।
महापुरुष जिस
तरह से करके, दिखलाते अपना व्यवहार।
वैसे ही उनका
अनुसरण, करता रहता है ये सारा संसार।।
मैं सृष्टि का
रचयिता, मैं तीनों लोको का पालन कर्ता।
फिर भी मैं कार्य
करने में, पलभर भी नहीं रुकता।।
संपूर्ण विश्व
करता है और,करता रहेगा मेरा अनुसरण।
इसलिए अर्जुन!
सावधानी से,रखना होता है हर कदम।।
महापुरुषों की
छोटी सी गलती, से भी अनर्थ हो जाता है।
विश्वामित्र की
तपस्या भंग हुई, सारा इतिहास जानता है।।
अज्ञानी तो फलपाने
की, चाहत का मार्ग ही चुनता है।
पर विद्वान स्वार्थ
त्यागकर,नए नए उदाहरण रचता है।।
अज्ञानी को
धीरे-धीरे अपने, आचरण से प्रेरित करता है।
बिनटोके कर्मों
को उनके, सत्कर्मों में श्रद्धा जगाता है।।
अकसर हम सफलताएँ
पाकर, खुद पर गर्व करते हैं।
पर ये कार्य सारे
प्रकृति के, तीन गुणों द्वारा होते हैं।।
प्रकृति माँ की
भाँति हमें, स्वतंत्र कार्य की इच्छा देती है।
पर भगवान की अनुमति,
पिता की भाँति छिपी रहती है।।
हे अर्जुन! चाहे
कर्मी बनो या, चाहे बनो तुम सन्यासी।
बस इंद्रियों
को वश में करना, उनमें ना आए आसक्ति।।
जो माया में फँसे
हुए हैं, उनका तुम सहारा बनना।
पर उनकी क्षमता
अनुसार ही, उतना उनको ज्ञान देना।।
ज्ञानी बनकर,मुझ
पर अपने,सारे कार्य समर्पित कर दो।
अधिकार,लाभ की
चिंता त्यागो,बिन आलस के युद्ध करो।।
बिन ईर्ष्या के
श्रद्धा से अगर, करोगे मेरे आदेशों का पालन।
फिर कभी नहीं
रहेगा तुमको, इन कर्मों का कोई बंधन।।
पर जो मुझसे
द्वेश कर मेरे,उपदेशों की अवहेलना करते हैं।
वे अज्ञानी,परिश्रम
करके भी, अपना जीवन व्यर्थ करते हैं।।
ज्ञानी भी मानव
स्वभाव के कारण माया में फँस जाते हैं।
माया के ये बलशाली
गुण, सब पर प्रभाव जमाते हैं ।।
मन को काबू में
करना है, तो राग द्वेष का समझो नियम।
माया से विरक्ति
करनी है ,तो केवल भगवान में लगाओ मन।।
पूरे नियम कभी
न हो पाएँ, तो भी नहीं छोडना अपना कर्म।
किसी दूसरे का
अनुसरण करके, ना खोना तुम अपना धर्म।।
अर्जुन ने पूछा,
कभी-कभी ना चाह कर भी हो जाता है पाप।
लगता है ऐसे जैसे
कोई शक्ति, खींच रही हो अपने आप।।
भगवन बोले,
इसका कारण है, रजो गुण से उत्पन्न कामना।
ना रोको तो ये
क्रोधरूप लेकर ,शुरू करती है पाप करना।।
जैसे अग्नि-धुएँ
में, दर्पण-धूल में, भ्रूण-गर्भ में ढका रहता है।
वैसे ही जीव का
मन, अभिलाषा का आवरण ओढ़े रहता है।।
लालसाओं की ये अग्नि
हृदय में, हमेशा जलती रहती है।
बुद्धि में घर
बनाकर आत्मा की, आवाज दबाती रहती है।।
आत्मसाक्षात्कार
के मार्ग में ,इच्छाओं की रुकावटे हैं बडी।
इसीलिए अर्जुन!
इनका दमन, करना
होगा शुरुआत से ही।।
कर्मेन्द्रियाँ
इन्द्रियों की सुनती हैं, इन्द्रियाँ सुनती है मन की,
मन बुद्धि की
मानता है जब, सुनता है आवाज आत्मा की।।
इस प्रकार अर्जुन
कसकर पकड़ना अपनी इंद्रियों की लगाम।
मन बुद्धि को
मुझ में लगाकर पूरा करना आत्मा का मान।
इस काम रूपी
शत्रु को जीतकर ,केवल करना अपना कर्म।
तब आदर्श
महापुरूष बनोगे, नमन करेगा तुमको जन जन।।
Comments
Post a Comment