कर्म अकर्म, विकर्म का भेद
कृष्ण बोले, अब मैं कर्म अकर्म, का भेद समझाता
हूँ।
बुद्धिमानो को भ्रमित
करे जो, वो सब मैं बतलाता हूँ।।
इसको जानकर तुम
अशुभ, कर्म से मुक्त हो जाओगे।
कर्म करके भी तुम
कर्म-बंधनों, में नहीं बँध पाओगे।।
समझना कठिन है बहुत,
इन कर्म की बारीकियों को।
कर्म, विकर्म
और अकर्म के, भेद की जानकारियों को।।
अकर्म वह कर्म
है जिसमें, कर्म का कोई बंधन ना हो।
विकर्म ऐसा कर्म
है जिसमें, शास्त्रों का नियम ना हो।।
हे अर्जुन!
कर्म करो ऐसे, कि बस वो अकर्म बन जाए।
कर्मों का सभी
फल सिर्फ, भगवान को अर्पित हो जाए।।
कर्मों को अकर्म
कर ले जो, वो बुद्धिमान कहलाता है।
प्रयास करते करते निजकामना से
रहित हो जाता है।।
कर्मफलों को
भक्तिअग्नि में भस्म करता रहता है।
कर्मों की आसक्ति
त्याग कर, सदा संतुष्ट रहता है।।
शरीरनिर्वाह के
लिये ही,बस धन का उपयोग करता हैं।
सारी संपत्ति प्रभु
की व खुद को रखवाला समझता है।
वह सफल हो या
असफल, द्वेष ईर्ष्या नहीं करता है।
इसलिये प्रकृति
के तीन गुणों में कभी नहीं फँसता है।।
इनके सभी किए
गए कार्य, ब्रहम में लीन हो जाते हैं।
अध्यात्मिकता
के ये सब कार्य ही हवन कहलाते हैं ।।
अपने
गुणानुसार व्यक्ति अध्यात्मिक हवन करते है।।
अपने अपने
कार्य हवन की अग्नि में अर्पण करते हैं ।
कर्मी देवताओं
को पूजके, ध्यानी परमब्रहम को मानके।
ब्रह्मचारी श्रवण
करके, गृहस्थ इंद्रियों से भक्ति करेके।।
ज्ञानी मन
रूपी अग्नि मे, इच्छाओं की आहुति देते हैं।
तपस्वी
तपस्या करते, धनवान संपत्ति त्याग देते हैं।।
योगी अष्टांगपद्धति
कर ज्ञान की प्राप्ति करते हैं ।
कुछ योगी
योगसमाधि से, सांसों को रोककर रखते हैं।।
कमभोजन द्वारा भी
प्राण की प्राण में आहुति देते हैं।
इस तरह ये साधक
अपने पापों का नाश कर देते हैं।।
यज्ञफल का अमृत
चखकर बढते दिव्य आकाश की ओर।
हे कुरूश्रेष्ठ!
सुख पाना है तो पकडनी होगी यज्ञ की डोर।।
ये सभी यज्ञ की
विधियाँ अर्जुन, वेदों में भी वर्णित है।
यज्ञ सभी पूर्ण
हो जाएँगें अगर दिव्य ज्ञान अर्जित है।।
गुरु सेवा कर जिज्ञासापूर्वक,
सत्य जानने का करो प्रयास।
देंगे वास्तविक
ज्ञान तुम्हें, किया है उन्होंने सत्य का भास।।
कर्मो का छूटेगा
मोह स्वरूपसिद्ध से करके ज्ञान स्वीकार।
पापी होकर भी
कर जाओगे इस दुख के भवसागर को पार ।।
ज्ञान की ये
अग्नि भौतिक कर्मों के फलों को जला देती है ।
दिव्यज्ञान से
शुद्ध नहीं कुछ, मिलती अध्यात्मिक
शांति है।।
परंतु अज्ञानी विवेकहीन
मनुष्य, जो शास्त्रों पर संदेह करते है।
भटक जाते हैं इस
लोक में, परलोक में भी दुखी रहते हैं।।
हे धनंजय!
जिसने किया कर्मों को परमात्मा में अर्पण।
संशय से रहित
होकर वह बन जाता है आत्म परायण।।
ज्ञान की तलवार
से काट दो अज्ञान के इस संशय को।
हे भारत! अब खड़े
हो जाओ, युद्धभूमी में युद्ध करने को।।
Bahut badiya aap ka geeta ka gyan jo kavita ke roop main hai.... hat kar hai jo sab ko lubhata hai ����
ReplyDeleteThank so much you kajal for your appreciation....please keep watching
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