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Bhagavad Gita Chapter 2 Part 4(आत्मसंयमी व्यक्ति)


 

      आत्मसंयमी व्यक्ति

    अर्जुन बोले, हे कृष्ण!, आत्मसंयमी की क्या है परिभाषा

 कैसे उठता बैठता है वह? कैसी होती है उसकी भाषा।।

बोले भगवन्, त्यागकर अपने, हृदय की सभी लालसा

संतोषी मन से करता है वो, आत्मा की पूरी अभिलाषा।।

परमपिता से संबंध जोड़ना, यही है आत्मा की कामना

ये कामना पूर्ण होते ही, मिलती है उसको दिव्य चेतना।।

चाहे दुख मिल जाए कितना,दुख से नहीं वो घबराता

कितना सुख मिल जाए चाहे, अहंकार मन में नहीं लाता।।

काम, क्रोध, लोभ, मोह उसके हृदय में नहीं बसता

शुभ होगा या अशुभ होगा उसे इसका डर नहीं लगता।।

कोई प्रेम करे या घृणा, पर वो नफरत नहीं करता है।

ऐसी स्थिर बुद्धि वाला ही, आत्म संयमी कहलाता है।।

   कछुए की भांति इंद्रियों को, खोल में समेट लेता है।

सपेरे की भाँति उनको, अपने वश में कर लेता है।।

पहले इच्छा जन्म लेती है, फिर उसमें मोह जगाती है।

इस मोह को पूरा करने की चाहत बढ़ती ही जाती है।।

चाहत जब पूरी नही होती, तब क्रोध को मिलता है बल

मस्तिष्क पर चढ़कर इसका, होता है पल में वेग प्रबल।।

क्रोध प्रबल हो जाने से,अच्छे-बुरे का भेद मिट जाता है

बुद्धि भ्रमित हो जाती है और सर्वनाश हो जाता है।। 

पर जो इस राग द्वेष से, अपने को दूर रखता है।।

वही धीर,संयमी व्यक्ति, भगवत कृपा को पाता है

भगवत कृपा के बिना, कभी नहीं मिल सकती शांति

चाहे कितना वैभव पालें, मन में रहती है क्रांति।।

ये प्रबल वेग है इन्द्रियों का, तूफान की भाँति आता है।

मन की स्थिर नैया को अकसर, दूर बहा ले जाता है।।

कोशिश करते-करते भी यह, लक्ष्य से भटकाता है

एक इंद्री का वेग भी जीवन में, उथल पुथल मचाता है।।

जो इंद्रियसेवक बनकर, बन जाता है इनका स्वामी।

वही मुनि है, वही साधु है, वही भक्त है, वही ज्ञानी ।।

ज्ञानी-अज्ञानी के जीवन का रात दिन का नाता है

अज्ञानी को आनंद देता जो,ज्ञानी को नही भाता है।।

नदियों के प्रबल वेगों से जैसे, सागर विचलित नहीं होता

वैसे ही ज्ञानी इच्छाओं की ,लहरों से कमजोर नहीं पडता।।

इनको त्यागने से ही मिलता, शांति -प्रेम का  संसार है।

आध्यात्मिक जीवन का पथ यह, भगवत्धाम का द्वार है।।

शालिनी गर्ग

 

 

 

 

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