कर्म बंधन से मुक्ति
ध्यान से सुनकर कृष्ण के, ये सभी अनमोल वचन ।
कुछ सकुचाकर बोले अर्जुन, हे केशव! हे जनार्दन।।
अगर कर्म करने से बढ़कर,ज्ञान योग होता है बड़ा।
फिर क्यों चाहते हैं आप मुझे,युद्ध में करना खडा।।
मैं भी तो अपने क्षत्रियकर्म का,करना चाहता हूँ त्याग ।
ज्ञानयोग पाने के लिए, लेना चाहता हूँ सन्यास।।
आपके इन उपदेशों को मैं, जैसे-जैसे समझ रहा हूँ।
पर इनके उद्देश्यों में,ना जाने कैसे उलझ रहा हूँ ।।
कृपया कर्मयोग-ज्ञानयोग को, थोड़ा सा सुलझाइए।
जो मेरे लिए कल्याणकारी हो, वही मुझको बतलाइए।।
कृष्ण जानते है,अर्जुन नहीं चाहते, भूल से भी पाप करना।
इसलिए “निष्पाप अर्जुन” पुकारके, शुरू करते हैं उत्तर देना।।
दो तरह की निष्ठा से,हो सकता है आत्मा का साक्षात्कार।
ज्ञानयोग या कर्म योग में से, किसी को भी करो स्वीकार।।
कर्म को त्यागकर कर्मफल से, छुटकारा नहीं मिल सकता।
सन्यासी बनकर ही सिद्धि मिले, ऐसा नहीं हो सकता।।
अपने अपने स्वभाव के अनुसार, हर कोई कर्म करता है।
कर्म बिना इस जग में कोई,एक क्षण नहीं रह सकता है।।
काम छोड़कर सन्यास लेकर कोई सोचे वह सदाचारी है।
अगर इंद्रियों पर वश नहीं है ,तो वह केवल मिथ्याचारी है।।
इंद्रियों को वश में करके जो, अपना कर्म करता रहता है।।
फल की कामना नही करता, वहीं निष्ठावान कहलाता है।
बस अर्जुन कर्म करो अपना, वेद शास्त्रों की पकडो राह।
बिना कर्म के बतलाओ जरा,कैसे होगा शरीर का निर्वाह।।
विष्णु को प्रसन्न करने ,के लिए ही केवल कर्म करना।
यही यज्ञ है,यही विधी है,कर्मबंधनों से मुक्ति मिलना।।
सृश्र्टि के आरम्भ में ही,देवताओं-मनुष्यों को रचा गया।
यज्ञ करो प्रसन्न रखो देवों को,यही मनुष्यों से कहा गया।।
तुम्हारे लिए देवता प्रकृति को,पूर्ण व्यवस्थित रखेंगें।
तुम्हारे पास धन और धान्य,सालो साल भरपूर रहेंगे।।
तुमको बस जो भी मिले, देवताओं को अर्पित करना है।
उनकी कृपा मानकर ही, सभी वस्तुओं को भोगना है।।
अर्पित किए बिना देवताओं को, जो ये सब भोगेगा।
कर्म बंधन में बंध जाएगा वो,और चोर कहलाएगा।।
सभी पापों से मुक्त होना है, तो केवल तू इतना कर।
जो भी करें, जो भी मिले,बस भगवान को अर्पित कर।।
सब प्राणी अन्न खाते हैं,अन्न का पोषण है वर्षा जल।
धूप ,सर्दी, गर्मी, वर्षा, ये सब यज्ञों का ही है फल ।।
यज्ञफलों को पाने के लिए,मानने होंगे वेदों के निर्देश।
भगवान के कहे वेद मानेंगे तो, होगा नहीं कोई क्लेश।।
जो मनुष्य इन्हें नहीं मानता ,नहीं करता इनका पालन।
वह निश्चय ही जीता है केवल, पापमय अधर्मी जीवन।।
पर जिस ने पहचान लिया है, अपना परमात्मा से संबंध।
वह सदा संतुष्ट रहता है,और पाता है जीवन में आनंद।।
सर्वसिद्ध हो जाता है वो,परमात्मा से करता साक्षात्कार।
आत्म संतुष्ट रहता है वो,करता परमात्मा का अंगीकार।।
उसका कर्तव्य उसके निज, स्वार्थ के लिए नहीं होता ।
सारे कर्मों का प्रयोजन उसका, परमात्मा के लिये होता।।
बिन आसक्ति, बिन मोह के, अपना कर्तव्य करना तुम।
आत्मा को मुक्ति मिल जाएगी, पा जाओगे परम ब्रह्म।।
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