कहानी बारह " उम्मीद दुखों की जड़"
राहुल अपने कमरे में बैठा
है, शांत… कुछ सोच रहा है। फिर मुस्कुराता है और मन में ठानता है।
राहुल (सोचते हुए, हल्की आवाज़ में): दादाजी की वो बात... "नॉर्मल से स्पेशल बनने
की"... कितनी अच्छी लगी। अब से मैं ध्यान रखूँगा कि मैं जो अभी कर रहा हूँ वह
महत्वपूर्ण है पुराना और भविष्य का सोच सोचकर मुझे परेशान नहीं होना है। जो बातें
बेकार हैं, यूज़लेस... उन पर टाइम वेस्ट नहीं करूँगा।
(वो घड़ी देखता है) अरे! टाइम हो गया दादाजी
के पास जाने का!
(राहुल दौडकर, हाथ में मोबाइल लेकर दादाजी के पास आता है)
राहुल (उत्साहित होकर): दादाजी! देखो… मैंने आज का श्लोक
मोबाइल में चला दिया —
"कर्मण्येवाधिकारस्ते मा
फलेषु कदाचन..." हम यही श्लोक पढ़ रहे थे
ना?
दादाजी (मुस्कराते हुए):
हाँ बेटा, यही श्लोक…तो अब बताओ, कुछ समझ भी आया या बस मोबाइल ही देखा?
राहुल मैंने इसे 4-5 बार सुना… पहली लाइन तो याद हो गई दादाजी।
अब दूसरी लाइन करनी बाकी
है।
दादाजी
अरे वाह! हाँ राहुल
हमें दूसरी पंक्ति को
अभी समझना भी बाकी है।
चलो, पहले बताओ — कर्मण्यवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन का क्या अर्थ है
राहुल (मुस्कराते हुए शरारत से): दादाजी पहले मुझसे "मा फलेषु कदाचन" का मतलब समझो
दादाजी ध्यान से सुनना मा
फलेषु… मतलब ‘माँ ने फल दिए’,
कदाचन… पर चना कहाँ है?
दादाजी (हँसते हुए कान पकड़ते हैं): यहाँ बैठ, मैं ही चना खिलाता हूँ तुझे! अब सही अर्थ बता...
राहुल (गंभीर होकर): इसका मतलब है —
हमें केवल अपना काम, अपना कर्म करना है।
उसका फल क्या होगा, उस पर हमारा कोई कंट्रोल नहीं है।
दादाजी (गर्व से): बिलकुल सही! दादाजी अब अगली पंक्ति पढ़ते
हैं —
"मा कर्मफलहेतुर्भूर्मा ते
संगोSस्त्वकर्मणि..."
दादाजी (समझाते हुए):
"मा कर्मफलहेतुर्भू:"
का अर्थ है —
तुम अपने को उस काम के फल
का कारण मत मानो।
मतलब… तुम ये मत सोचो कि
"मेरी वजह से ही ये काम हुआ।"
राहुल (थोड़ा कन्फ्यूज़ होकर): पर दादाजी… अगर मैंने काम
किया है तो मैं क्यों ना बोलूँ — "मैंने किया है"?
हाँ अगर शैतानी की हो… तब
तो मैं नाम ही ना लूँ!
(दादाजी हँस पड़ते हैं)
दादाजी: यही तो बात है राहुल…जब कोई काम अच्छा होता है,
तो हम बोलते हैं — “ये
मैंने किया, मेरी वजह से हुआ!”
और धीरे-धीरे हमें अहंकार
आ जाता है…
राहुल (: घमंड, ओवर कॉन्फिडेंस…
दादाजी (सिर हिलाते हुए) हाँ बेटा, बेटा अहंकार ऐसा राक्षस है जो हमारे
अंदर ओवर कोनफीडैंस लाता है, ये अहंकार हमें दूसरों से अलग और बड़ा दिखने का भ्रम
देता है। और हम बाकी दूसरों को— कम समझदार, कम मेहनती,अपने से कम समझने लगते हैं।
राहुल: मतलब… हमें अपने किए हुए काम का घमंड नहीं करना चाहिए?
दादाजी: बिलकुल सही ! ना तो घमंड करना है…
और ना ही किसी से किए गए
काम के बदले कोई उम्मीद रखनी है —
कि बदले में वो हमारी
तारीफ करे, या हमें कुछ दे।
राहुल: तो फिर काम करके हम क्या सोचें दादाजी ?
दादाजी (मुस्कराते हुए): सोचो कि भगवान की कृपा से ये काम हो
रहा है।
तुम तो बस उस काम का एक
हिस्सा हो —एक पार्ट, जैसे टीम में एक प्लेयर।
राहुल (चमकती आँखों से): मतलब…हमें हर काम को टीमवर्क समझकर करना चाहिए!
राहुल (सोचते हुए): दादाजी, अगर कोई काम हमने अकेले किया हो… तब उसमें कोई और पार्टनर कैसे हो सकता है?
दादाजी (मुस्कुराते हुए): हाँ राहुल, दिखने में कोई अकेले काम कर रहा हो… पर हर काम की
सफलता में कई पार्टनर होते हैं —कुछ दिखते हैं, और कुछ अदृश्य होते हैं।मतलब कुछ विजिबल कुछ
इनविजिबल।
राहुल:जैसे? अगर मैं अच्छे मार्क्स लाया… तो कौन-कौन हुआ मेरा पार्टनर?
दादाजी: अरे बहुत लोग हैं बेटा —
तुम्हारी टीचर, जिन्होंने तुम्हें पढ़ाया…मम्मी, जिन्होंने याद करवाया…
वो किताबें जो तुम्हारे
पास थीं…अच्छा पेन… और तुम्हारी मेमोरी पावर — जो भगवान ने दी है।
राहुलछ ओह… सच में! तो दादाजी, अगर रिजल्ट अच्छा ना आए, गलती हो जाए — तब?
दादाजी: तब भी पार्टनर होते है…तब हमारी कुछ आदतें, कुछ शरारती दोस्त, या मन का भटकना — ये सब जिम्मेदार हो सकते हैं।
हमारी इंद्रियाँ जब हावी
हो जाती हैं, तो बुद्धि काम नहीं करती।
और मोबाइल, टीवी… ये समय भी खा जाते हैं।
राहुल: तो दादाजी मतलब हम बस अपना कार्य करे ये नही सोचना चाहिये कि हमारी वजह से ही ये सब सही हो रहा है या गलत।
दादाजी: हाँ राहुल बस सही दिशा में करना है फिर सफलता मिले तो
ज्यादा उडना नहीं है और असफल होने पर गुमसुम बैठना नहीं है। बस हमें अपने काम पर ध्यान देना है
राहुल: राहुल दादाजी आपने कहा कि
हमें किसी से कोई उम्मीद मतलब expectation नहीं रखनी चाहिये ,इन उम्मीदों की वजह से ही परेशानी
उत्पन्न होती हैं वो
कैसे?
दादाजी: क्योंकि बेटा, दुखों की जड़ ही यही है — राहुल अकसर जब हम किसी के लिए काम करते है या कह सकते हो अपने ओफिस के लिए, कभी हमारे परिवार के लिए या दोस्तों या समाज के लिए करते हैं पर जब हमें प्रशंसा नही मिलती मतलब उस काम का हमें क्रेडिट नहीं मिलता तो हम उदास हो जाते हैं और हम दूसरों को बुरा कहने लगते है।
राहुल: तो दादाजी हमें ये सब नहीं सोचना है कि कोई क्या कहता है नहीं कहता है बस अपना काम करना है।
दादाजी: बिलकुल सही! बस अपना काम करो… बिना किसी से कोई उम्मीद
किए।
और बेटे एक और बडी बात कि काम से कर्म से भी आसक्ति मतलब अटैचमैंट नहीं रखना है।
राहुल: पर दादाजी… वो कर्म करना तो हमारा धर्म है, कर्तव्य है ना?
दादाजी: हाँ बेटा हमारा काम हमारा कर्तव्य हमारा धर्म है पर समय स्थान जैसे बदलता है हमारा कर्म भी बदलता है हमें जो कर्म जिस परिस्थिती में मिले हमें वह स्वीकार करना है और करना है।
राहुल: दादाजी हमारी उम्र के अनुसार भी हमारा कर्म बदलता रहता है ना,
दादाजी: हाँ बेटा समय और परिस्थिति के अनुसार हमारा कर्म बदलता रहता है।
तुम्हारी उम्र में पढ़ाई
करना तुम्हारा धर्म है, मेरी उम्र में भगवान में ध्यान करना और तुम्हे समझाना
राहुल कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थिति आती है कि हमारा पूरा कर्म बदल जाता है तब हमे परिवर्तन को स्वीकार करना है और अपना नया कर्म पूरे मन से करना है।
राहुल: और अगर हम कहें कि हमें कर्म करने का“जब लाभ नहीं
दिख रहा, तो मैं अपना कर्म क्यों करूँ?”
दादाजी: आखिरी पंक्ति में भगवान यही समझाते हैं
ते सङ्गोऽस्त्वकर्मणि इसका अर्थ है तुम्हे ये भी नहीं सोचना है कि फिर मैं कर्म क्यों करूँ कृष्ण भगवान कहते हैं….लेकिन हमें हमेशा अपना कर्तव्य करना चाहिए ये नहीं सोचना चाहिए कि मुझे इसका जब कोई लाभ नही मिलेगा तो मैं क्यों करुँ । कभी सोचना भी नहीं कि "मैं कुछ करूँ ही नहीं।"
राहुल : दादाजी फिर काम करने का मन तो कम करेगा ना?
राहुल मैं तुम्हे बहुत अच्छे उदाहरण से समझाता हूँ । जैसे शरीर के सब अंग कार्य करते हैं हाथ खाना बनाता है पर खाता कौन है मुँह,तो हाथ कहे मैं क्यों मेहनत करूँ मजे तो जीभ के आते है खाने में।
राहुल (हँसते हुए): अगर हाथ मेहनत नही
करेगा खाना नहीं बनाएगा… तो सब भूखे रहेंगे!
और फिर हाथ भी तो कमजोर हो जाएगा।
दादाजी: जब शरीर स्वस्थ रहेगा तो हाथ भी स्वस्थ़ रहेगा, ताकतवर रहेगा।
वैसे ही, जब हम कर्म करते हैं —उसका फल तुरंत ना मिले, पर बाद में ज़रूर मिलता है।
राहुल: जैसे हाथ को पोषण बाद में मिलता है,
वैसे ही हमें भी मिलेगा!
दादाजी: शाबाश! इसलिए बेटा —
बिना रुके, बिना गलत सोच के बस अपना कर्तव्य निभाते रहो।
राहुल: और दादा जी किसी से कोई उम्मीद नही रखनी है। बस अपना कर्तव्य निभाना है। वो भी बिना अटैचमेंट के…बस कर्म करते रहो।
दादाजी: पूरे श्लोक को हम इस तरह
भी बोल सकते हैं।
कर्म करना तेरा अधिकार, कर्म फल
नहीं अधिकार।
बिन आसक्ति बिन अपेक्षा, कर्म को करना स्वीकार।।
मेरे कारण यह कर्म हुआ है, करना
नहीं कभी विचार।
किंतु कर्म करने से अर्जुन, कभी नहीं करना इंकार।।
दादाजी: राहुल, बस कर्म का लक्ष्य देखो… और मन लगाकर कर्म करते रहो। और परिणाम......
राहुल (झट से): और परिणाम? मतलब फल की चिंता नहीं करनी है, है ना दादाजी?
भगवान खुद ही फल देंगे।
दादाजी (मुस्कुराते हुए): हाँ बेटा, यही तो गीता का सार है। इस श्लोक पर एक गाना भी है
राहुल “कर्म किए जा फल की इच्छा मत कर ये
इंसान ये है गीता का ज्ञान ये है गीता का ज्ञान।
राहुल (उत्साहित होकर): क्या ये सच में गाना है?
दादाजी (हँसते हुए): हाँ बेटा, हमारे ज़माने का है।
क्या तुम्हें गाना नहीं
लग रहा था?
राहुल (हँसते हुए): लग तो रहा था दादाजी! बढ़िया है।
दादाजी: तो अब चलो, बहुत रात हो गई है… सो जाओ।
राहुल (शरारत से): एक मिनिट!
दादाजी, आपको कहानी सुनाने का फल मिलेगा या नहीं… इसकी चिंता नहीं
करनी है।
बस मुझे कहानी सुनाते
रहना है!
दादाजी (हँसते हुए, प्यार से माथा सहलाते हुए): मैं क्यों चिंता करूँ पगले…
मुझे तो तेरा
“दादाजी-दादाजी” कहकर कहानी सुनना ही सबसे बड़ा फल लगता है।
साथ में तेरे मजेदार
सवाल… और वो बड़ी-बड़ी फिलोसफी जैसी बातें छोटे से मुंह से!
राहुल (थोड़ा संकोच में):सच में दादाजी? आपको मेरे सवाल अच्छे लगते हैं?
दादाजी: हाँ हाँ ! तेरे सवालों से तो पता चलता है कि तू ध्यान से सुन रहा है…
बोर नहीं हो रहा, रुचि ले रहा है।
राहुल (गर्व से): दादाजी, पता है…इन कहानियों के वीडियो से सिर्फ मैं ही नहीं,
कई लोग सीख रहे हैं…
यूट्यूब पर!
दादाजी (आश्चर्य से): अरे वाह! ये तो बहुत अच्छी बात है बेटा।
राहुल: तो दादाजी… कल फिर एक नया गीता का ज्ञान देंगें।
दादाजी: ज़रूर बेटा अब अपने कमरे में जाकर सो जाओ।
राहुल: गुड नाइट दादाजी!
दादाजी (धीरे से): गुड नाइट मेरे ज्ञानी बाबा!
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