अध्याय -5 कृष्ण भावना भावित कर्म क्रोध , इच्छा , भय , से मुक्ति अर्जुन बोले , कृष्ण आपने , पहले कहा कर्म करो त्याग। अब कहते हो भक्ति पूर्वक , करो कर्म का अभ्यास।। कृपया करके केवल मुझको , निश्चित मार्ग बतलाइए । जो मेरे लिए कल्याणकारी हो , केवल वही समझाइए।। भगवान बोले , हे अर्जुन! मुक्ति के लिए दोनों हैं उत्तम। पर श्रेष्ठ तो कर्मयोग है , क्योंकि ये है अधिक सुगम।। कर्मफलों से ना करते घृणा , ना कोई आकांक्षा रखते हैं। कर्मयोगी ही सन्यासी है , भवबंधन से मुक्ति पाते हैं।। अज्ञानी ही कर्मयोग व ज्ञानयोग में अंतर कर देते हैं। ज्ञानयोग कर्मयोग दोनो से , परमधाम को पा सकते हैं।। दोनों का फल एक देखे जो , वही वास्तविक देखते हैं। कर्म बिना सन्यासी बनकर , सुखी नहीं रह सकते है।। जो जीतकर इंद्री , मन को , अपने काबू में कर लेते है। सबके प्रिय बनते हैं और आत्मा शुद्ध कर लेते है।। जागते , सोते , चलते , उठते , खाते , पीते और बोलते। मैं कुछ नहीं करता हूँ , ये सब काम इंद्रियों के होते।। जो यह सत्य जानता है , वो दिव्य ज्ञान का ज्ञाता है। ...
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